अलविदा मंगलेश डबराल!

कोरोना वायरस ने बहुत कुछ छीन लिया है इस दुनिया से। कई ऐसी क्षतियाँ हुई हैं जिनकी भरपाई करना इतनी आसानी से संभव नहीं होगा। 09 दिसंबर, 2020 को ऐसी ही एक क्षति के समाचार ने लोगों को स्तब्ध कर दिया। लोगों के प्रिय कवि, लेखक, पत्रकार, संपादक व अनुवादक मंगलेश डबराल नहीं रहे।

72 वर्षीय मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई, 1948 को टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गाँव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा देहरादून में प्राप्त करने के बाद वो दिल्ली चले गए। शुरुआती दौर में उन्होंने पेट्रियट,  प्रतिपक्ष, आसपास, पूर्वग्रह, अमृत प्रभात, इत्यादि में कार्य किया। 1983 में वे जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक बने। लंबे समय तक जनसत्ता में रहने के बाद उन्होंने कुछ समय ‘सहारा समय’ के संपादन में बिताया और फिर नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़ गए।

1981 में उनका प्रथम कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ प्रकाशित हुआ। उनकी अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज भी एक जगह है’ और ‘नए युग में शत्रु’। उनके कविता संग्रह ‘हम जो देखते हैं’ के लिये उन्हें 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। उनकी कविताओं का अनेक भारतीय भाषाओं में ही नहीं अपितु अनेकानेक विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया। उन्होंने भी अन्य भाषाओं के साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करने में अहम भूमिका निभाई।

आइसलिंगन सिटी सेंटर, जर्मनी, के मुख्य द्वार पर मंगलेश डबराल की कविता  (मंगलेश जी का चित्र – संजय बोराडे) 

उनके अकस्मात निधन से स्तब्ध पाठकों व मित्रों ने सोशल मीडिया पर कई प्रतिक्रियाँ साझा की। ये प्रतिक्रियाएँ मंगलेश डबराल के व्यक्तिव के बारे में बहुत कुछ कहती हैं।

“मंगलेश जी अपनी कविताओं की तरह जीवन में भी सरल तथा स्पष्ट थे। यानी वे उन दुर्लभ लोगों लोगों  में से थे, जिनके रचनाकार तथा किरदार में बहुत कम अंतर होता है। उनके प्रति यह भरोसा तथा आत्मीयता दो दिनों की मुलाकात से बना था।“

दिनेश कर्नाटक

“मंगलेश डबराल ऐसे दौर में महाप्रयाण कर गए जब उनकी लेखनी से मिलने वाली ताक़त की कमी बहुत लोगों को बहुत खलेगी।“

उमेश तिवारी ‘विश्वास’

“मंगलेश जी हिन्दी साहित्य के बहुत सम्मानित हस्ताक्षर हैं। कविता तो उनकी विधा है। उन्होंने समाज को प्रगतिशील नजरिये से देखने की चेतना पर भी बहुत काम किया है। जनसंघर्षों का साथ तो दिया ही मजदूर, किसान, शोषित, दमित, महिला और दलित संदर्भों को भी हर मंच से उठाया।“

चारु तिवारी

“अलविदा मंगलेश जी, आपकी जगह हमेशा ही बची रहेगी साहित्य में, जनपक्षधरता में और हमारे दिलों में,  आप ही के शब्दों में हमें याद दिलाती कि “हम क्या भूल गए हैं और हमने क्या खो दिया है।”

इंद्रेश मैखुरी

बीमारी से जूझते हुए भी मंगलेश डबराल सोचते रहे, लिखते रहे। उन्होंने अस्पताल से ही फेस्बूक पर लिखा –

“बुखार की दुनिया भी बहुत अजीब है। वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है। वह आपको इस तरह झपोडती है जैसे एक तीखी-तेज़ हवा आहिस्ते से पतझड़ में पेड़ के पत्तों को गिरा रही हो। वह पत्ते गिराती है और उनके गिरने का पता नहीं चलता। जब भी बुखार आता है, मैं अपने बचपन में चला जाता हूँ। हर बदलते मौसम के साथ बुखार भी बदलता था। बारिश है तो बुखार आ जाता था, धूप अपने साथ देह के बढे हुए तापमान को ले आती और जब बर्फ गिरती तो माँ के मुंह से यह ज़रूर निकलता, “अरे भाई, बर्फ गिरने लगी है , अब इसे ज़रूर बुखार आएगा।“ एक बार सर्दियों में मेरा बुखार इतना तेज़ हो गया कि पड़ोस की एक चाची ने कहा, “अरे च्छोरा, तेरा बदन तो इतना गर्म है कि मैं उस पर रोटी सेंक लूं!”  चाची को सुनकर लोग हँस देते और मेरा बुखार भी हल्का होने लगता। उधर, मेरे पिता मुझे अपनी बनायी बुखार की कारगर दवा ज्वरांकुश देते जिसका कडवापन लगभग असह्य था। वह गिलोय की गोली थी, लेकिन पता नहीं क्या-क्या पुट देकर इस तरह बनाई जाती थी कि और भी ज़हर बन जाती और बुखार उसके आगे टिक नहीं पाता था। एक बार गाँव में बुखार लगभग महामारी की तरह फैलने लगा तो पिता ने मरीजों को ज्वरांकुश देकर ही उसे पराजित किया। अपनी ज्वरांकुश और हाजमा चूर्ण पर उन्हें बहुत नाज़ था जिसकी परंपरा मेरे दादाजी या उनसे भी पहले से चली आती थी। पिता कहते थे कि जडी-बूटियों को घोटते वक़्त असल चीज़ यह है कि उन्हें कौन सा पुट – दूध, शहद, घी, अदरक, पारा, चांदी, सोने का – दिया जाता है। उसके अनुसार उसकी तासीर और इस्तेमाल बदल जाते हैं। बहरहाल, जब मेरा बुखार उतरने लगता तो मुझे उसकी आहट सुनायी देती। वह सरसरा कर उतर रहा है, बहुत आहिस्ते, जैसे साँप अपनी केंचुल उतारता है। केंचुल उतंरने के बाद लगता शरीर बहुत हल्का हो गया है और आने वाले बुखारों को झेलने में समर्थ है। बुखार के बाद त्वचा में एक अजीब पतलापन आ जाता था और हाथ की शिराओं का नीला रंग उभर आता जिसे देर तक देखना अच्छा लगता।”

जीवन भर मंगलेश डबराल ने अनेक विषयों और मुद्दों पर लिखा। उस ऑक्सीजन पर भी जिसके लिए उनका शरीर, कोविड19 के कारण, जूझ रहा था।

घटती हुई ऑक्सीजन

अक्सर पढ़ने में आता है
दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रही है
कभी ऐन सामने दिखाई दे जाता है कि वह कितनी तेज़ी से घट रही है
रास्तों पर चलता हूँ खाना खाता हूँ पढ़ता हूँ सोकर उठता हूँ
तो एक लंबी जमुहाई आती है
जैसे ही किसी बंद वातानुकूलित जगह में बैठता हूँ
उबासी एक झोंका भीतर से बाहर आता है
एक ताक़तवर आदमी के पास जाता हूँ
तो तत्काल ऑक्सीजन की ज़रूरत महसूस होती है
बढ़ रहे हैं नाइट्रोजन सल्फ़र कार्बन के ऑक्साईड
और हवा में झूलते अजनबी और चमकदार कण
बढ़ रही है घृणा दमन प्रतिशोध और कुछ चालू क़िस्म की खुशियां
चारों ओर गर्मी स्प्रे की बोतलें और खुशबूदार फुहारें बढ़ रही हैं

अस्पतालों में दिखाई देते हैं ऑक्सीजन से भरे हुए सिलिंडर
नीमहोशी में डूबते-उतराते मरीज़ों के मुँह पर लगे हुए मास्क
और उनके पानी में बुलबुले बनाती हुई थोड़ी सी प्राणवायु
ऐसी जगहों की तादाद बढ़ रही है
जहाँ सांस लेना मेहनत का काम लगता है
दूरियां कम हो रही हैं लेकिन उनके बीच निर्वात बढ़ता जा रहा है
हर चीज़ ने अपना एक दड़बा बना लिया है
हर आदमी अपने दड़बे में क़ैद हो गया है
स्वर्ग तक उठे हुए चार-पांच-सात सितारा मकानात चौतरफ़
महाशक्तियां एक लात मारती हैं
और आसमान का एक टुकड़ा गिर पड़ता है
ग़रीबों ने भी बंद कर लिये हैं अपनी झोपड़ियों के द्वार
उनकी छतें गिरने-गिरने को हैं
उनके भीतर की हवा वहां दबने जा रही है

आबोहवा की फ़िक्र में आलीशान जहाज़ों में बैठे लोग
जा रहे हैं एक देश से दूसरे देश
ऐसे में मुझे थोड़ी ऑक्सीजन चाहिए
वह कहाँ मिलेगी
पहाड़ तो मैं कब का छोड़ आया हूँ
और वहाँ भी वह
सि़र्फ कुछ ढलानों-घाटियों के आसपास घूम रही होगी
दम साधे हुए मैं एक सत्ताधारी के पास जाता हूँ
उसे अच्छी तरह पता है दुनिया का हाल
मुस्कराते हुए वह कहता है तुम्हें क्यों फ़िक्र पड़ी है
जब ज़रूरत पड़े तुम माँग सकते हो मुझसे कुछ ऑक्सीजन।


मंगलेश डबराल की कई कविताएँ ‘कविता कोश’ ने ऑनलाइन साझा करी हैं। पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।


इस लेख में उपयोग किए गए सभी चित्र मंगलेश डबराल जी के फेसबुक पेज से साभार लिए गए हैं। 

संपादकीय
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One Comment on “अलविदा मंगलेश डबराल!”

  1. “चीजें खो जाती हैं, हम कही और चले जाते हैं”
    अलविदा – मंगलेश डबराल जी
    आपकी जलायी –
    “पहाड़ पर लालटेन”
    “घटती हुई ऑक्सीजन”
    में भी जलती रहेगी और हमें
    “घर का रास्ता”
    दिखाती रहेगी.
    भावभीनीं श्रद्धांजली

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