बस यूँ ही, चुपके से!

हम सबकी इच्छा तो थी की कोई मस्त वेबीनार किया जाए ज्ञानिमा का उद्घाटन करने के लिए। कुछ हल्ला गुल्ला। कुछ हल चल। कोई भाषण। कोई संगीत संध्या। कुछ ऐसा शोर जिससे सबको बता सकें की अब हम भी हैं यहाँ – वर्ल्ड वाइड वेब अर्थात इंटरनेट के इस जाले में।

मैं जब पहाड़ वापस आया तो एक सज्जन ने कहा – गाँव में बसने से पहले आपको गाँव में कुछ हलचल करनी चाहिए। मैंने पूछा – क्या? और क्यूँ? वो बोले – ‘क्या’ के तो बहुत उत्तर हैं। एक संस्था बनाने की चर्चा या घोषणा कर ही डालिए। मन ना करे तो मत बनाइएगा। कौन पूछता है बाद में। या कुछ और घोषणा कर डालिए जिससे आपका आना औरों के लिए भी महत्वपूर्ण हो जाए। और ‘क्यों’ – क्योंकि हाथी शोर मचाता हुआ आता है। मुझे हँसी आ गई। वो समझे मैं उनका मज़ाक उड़ा रहा हूँ।

मुझे हँसी इस बात पर आई की अक्सर हम कर्म से ज्यादा कर्म की घोषणा करने में विश्वास रखने वाला समाज बन चुके है। दो नई चीजें सीख कर तीन नई बातें बना लेते हैं। पल भर के लिए शायद अच्छा भी लगता है। पर उसका क्या सामाजिक नुकसान होता है ये अक्सर हम देख ही नहीं पाते। मसलन यह खबर – दिल्ली से बड़ी नौकरी छोड़ कर गाँव लौटे नवयुवक ने जैविक खेती में कमाये लाखों! या, भांग के रेशे की खेती बदलेगा ग्रामीण उत्तराखंड का भाग्य! खबर लिखने वाला भी खुश। साझा करने वाला भी खुश। पढ़ने वाला भी खुश।

पर दुखी होता है तो केवल वो इंसान जिसकी आशा जागती है ऐसी खबरों से। उसे अचानक उन्नति की राह दिखाई देती है। बच्चे का उज्ज्वल भविष्य दिखाई देता है। निश्चिंतता से आराम करती पत्नी दिखाई देती है। यह सब वो कई बार देख चुका है पर फिर भी आस नहीं छोड़ता। आस ही तो एक लाचार इंसान की आखिरी आस है। पर उस आस को तोड़ते किसी को लाज नहीं आती। शायद निजी तौर पर मैं भी ऐसी कई आशाएँ तोड़ चुका हूँ।

ज्ञानिमा सुधार की एक कोशिश है। हम कोई पत्रिका या अखबार नहीं शुरू करे रहे इसलिए जायकेदार खबरों की आशा ना रखें। हमारी कोशिश बस इतनी है की आप तक वो जानकारी पहुँच सके जो आपको चाहिए ताकि आप खबरों के शीर्षकों के जंजाल में ना फँस जाएँ। हमसे चाँद की उम्मीद भी ना रखें क्योंकि जरूरी नहीं की जिस गर्माहट की आपको तलाश है वो हम आपको दे सकेंगे। बस इतना वादा जरूर कर सकते हैं की कोशिश पूरी रहेगी उन बातें को पूर्णता के साथ आप तक पहुँचाने की जिन बातों से एक आम जीवन में फर्क पड़ सकता है। हम आप तक समाज और इतिहास की वो जानकारियाँ भी लायेंगे जो अक्सर बाज़ारवाद के शोर में कहीं खो जाती हैं। हम राजनीति की चर्चा से भी नहीं शरमाएंगे क्यों हमारे जीवन के हर पहलू पर राजनीति का प्रभाव पड़ता है।

इस कहानी की शुरुआत तो हम कर रहें है पर चाहेंगे की इस सफर को दिशा आप भी दें। आप बताएँ की आप क्या जानकारियाँ चाहते हैं। अगर आपके पास कोई ऐसे विचार हैं जिससे आपको लगता है की समाज पर एक बड़ा प्रभाव पड़ सकता है तो उसे साझा करें। अगर बात जायज है तो चर्चा जरूर होगी इसका हम वादा करते हैं। पर अगर कोई मुद्दा उठाने से हम इनकार करते हैं तो उसे व्यक्तिगत रूप में मत लीजिएगा क्योंकि वो निर्णय हममें से किसी का निजी मत नहीं अपितु तार्किक निर्णय होगा और हमारी पूरी कोशिश रहेगी की हम उस पर आपसे भी तार्किक संवाद करें।

आज इस नई शुरुआत की शुरुआत है – चुपके से! आज ही क्यों? बस यूँ ही!

चलिएगा हमारे साथ?

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3 Comments on “बस यूँ ही, चुपके से!”

  1. नवीन जी आपने बगैर शोर शराबे के एक सार्थक मंच की शुरुआत की है, आशा करता हूं कि इसके माध्यम से समाज को लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक सोच समझ और व्यवहार करने और उन सवालों पर सोचने समझने और विचार विमर्श करने का मौका मिलेगा जो हमारे जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं. कई सवाल जिन पर आम सोशल मीडिया पर लिखने बोलने से फालतू का बखेड़ा खड़ा कर दिया जाता है उन्हें यहां उठाया जा सकता है ताकि उसके हर पहलू को समझा जा सके.

  2. आशुतोष उपाध्याय जी ke khojshala ke bare me aur jankary lena chatting hu jis se mai bhi is tarah ka grameen vigyan kendra shuru kr saku

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