दिल्ली और पर्यटन से आगे

आधिकारिक आंकड़ों को देखें तो उत्तराखंड एक ठीक-ठाक सा राज्य नजर आता है। प्रति व्यक्ति आय (पर कैपिटा इनकम) और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दोनों ही राष्ट्रीय औसत से काफी आगे हैं। राज्य में शिक्षा का स्तर भी ठीक ठाक है। स्थानीय रोजगार भले ही बहुत ज़्यादा ना हो, दिल्ली की नजदीकी के चलते लगभग 30 फीसदी लोग वहाँ रोजगार पा लेते है। हाई स्कूल, इंटर, बीए, बीएससी, एमएससी – सब को किसी न किसी प्रकार का रोजगार दिल्ली में मिल ही जाता है।

यहाँ दिल्ली से मेरा तात्पर्य राज्य से बाहर के सभी प्रमुख नगर हैं, जैसे नोएडा, गुडगाँव, फ़रीदाबाद, चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, गुजरात, बैंगलोर और यहाँ तक कि लखनऊ और कानपुर । पहाड़ के नजरिए से ये सब दिल्ली हैं। होटलों, फैक्ट्रियों, दुकानों से लेकर मिनिस्ट्री, आईटी, एमएनसी, इत्यादि में उत्तराखंड के लोग काम कर रहे हैं। कुछ लोग दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में छोटे उद्योगो  के माध्यम से स्वरोजगार में जुटे हैं।

उत्तराखंड का लगभग 10 फीसदी वर्ग, सरकारी, नौकरियों और अन्य सर्विस सेक्टर के उपक्रमों में रोजगार पा लेता है। अलबत्ता, हल्द्वानी, कोटद्वार, काशीपुर, रुद्रपुर, हरिद्वार, देहरादून, रूड़की में ही ऐसा तबका रोजगार पाता है।

इसके बाद एक बहुत बड़ा वर्ग फौजी है, रिटायर्ड एवं सेवारत दोनों। मुख्य रूप से आर्मी और थोड़ा सा एयरफोर्स और नेवी भी, लेकिन बड़ा हिस्सा आर्मी में ही है। इस वर्ग में सिपाही भी हैं और अफसर भी। अफसर वर्ग कम है और सिपाही वर्ग बहुत बड़ा। अनुपात शायद 20:80 का होगा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड सेना में जवान देने के मामले में सबसे आगे है। अमूमन 17-18 साल की उम्र में भर्तियां होती है, फिर लगभग 15 साल की सर्विस। कुछ लोग थोड़ा और आगे बढ़ जाते हैं और बाकियों को रिटायरमेंट मिल जाता है। मेरे पास आधिकारिक आंकड़ें नहीं है फिर भी यह कहा जा सकता है कि फौजियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा (70-80%) 35 साल की उम्र में रिटायर होकर वापस आ जाता है। चूँकि कोई मुख्यधारा की स्किलिंग या ट्रेनिंग हुई नहीं होती है इसलिए रिटायरमेंट के बाद सभी आजीविका के अलग अलग साधन अपना लेते हैं- ढाबे, दुकान, छोटा रोजगार, थोड़ा बहुत कृषि-पशुपालन, वगैरह। कुछ लोग पर्यटन संबंधी कार्यों से जुड़ जाते हैं-जैसे टैक्सी सर्विस, होटल, रेस्तरां, गाइड, एडवेंचर, इत्यादि। ये सेक्टर भूतपूर्व सैनिकों को बढ़िया आजीविका का साधन देता है। भूतपूर्व सैनिकों के अलावा पर्यटन अन्य लोगों को भी रोजगार देता है। इसी कारण पर्यटन उत्तराखंड का सबसे बड़ा सेक्टर है। पर्यटन के सभी साधन है यहाँ – धार्मिक स्थल, हिमालय, जंगल, वन्य जीव जन्तु, नदियाँ, चोटियाँ, तालाब… 

लेकिन पर्यटन सिर्फ एक सेक्टर है। एक ऐसा सेक्टर जिसके अपने खतरे हैं। पर आजीविका के नाम पर सारा ध्यान अक्सर पर्यटन ही खींच ले जाता है जब की उत्तराखंड में आजीविका के इसके अलावा कई अन्य सुगम साधन उपलब्ध हैं।  

कोरोना के आने से स्थिति भयावह सी दिख रही है। पर्यटन की स्तिथि डाँवाडोल है। लॉकडाउन में प्रवासी वापस आते हैं और लॉकडाउन खत्म होते ही वापस चले जाते हैं। पिछले दो सालों में प्रदेश ने कम से कम एक लाख ऐसे लोगों को वापस लाने का मौका खो दिया जो शायद वापस आ कर यहीं कुछ कर सकते थे, उत्तराखंड में।

गौर से देखें तो राज्य सरकार के पास कमी संसाधनों का नहीं बल्कि सोच की है। हमारे पास एक बहुत बड़ा युवा वर्ग है जो कि उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए प्रदेश में स्वरोजगार और छोटी इंडस्ट्रीज को आगे ले जा सकता है। पर इस बात तो पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है। सारे बड़े औद्योगिक परिसर, हरिद्वार, रुद्रपुर, किच्छा और सितारगंज जैसे मैदानी इलाकों में लगाए गए हैं। नेट रेवेन्यू के हिसाब से ये आउटगोइंग ज्यादा है, इनकमिंग कम।

पहाड़ी इलाकों में असीमित साधन हैं, यदि गधेरों, जंगलों, कृषि, बागवानी और पशुपालन को एकीकृत प्रबंधन के अन्तर्गत देखने का प्रयास किया जाए तो उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, बागेश्वर, पिथौरागढ़ ही बहुतायत में साधन उपलब्ध करा सकते हैं। इसके लिए उत्तराखंड को देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर, हल्द्वानी, पौड़ी, टिहरी, अल्मोड़ा, नैनीताल से हटकर पहाड़ी (उच्च हिमालयी क्षेत्रों) क्षेत्रों को केंद्र में रख कर योजनाएँ बनानी पड़ेगी। विडंबना ही है की स्थाई राजधानी के नाम पर गैरसैंण एक प्राकृतिक, पहाड़ी संवेदना से ज्यादा राजनैतिक मसला बन गया है।

सच तो यह है की गैरसैंण विकल्प के बजाय मुख्य विचारधार होनी चाहिए थी – पहाड़ी राज्य के लिए पहाड़ी राजधानी। चाय बागान, फल एवं बागवानी, पहाड़ी कृषि (मिलेट एवं मोटा अनाज), नान-टिंबर जंगली उत्पाद, पशुपालन, स्मॉल प्रोसेसिंग, वन प्रबंधन (एक तरह के पेड़ों से अनेक की ओर), होमस्टे, रिस्पॉन्सिबल टूरिज्म, लोक कला और संस्कृति को केंद्र में रखकर देखने और सरकारी सोच में बदलाव व परिपक्वता की जरूरत है। सरकार से ले कर आम व्यक्ति तक पर यह सोच हावी हो चुकी है की जमीन बेच-बेच कर ही उत्तराखंड अपना विकास कर लेगा।

रास्ते आसान नहीं हैं लेकिन उत्तराखंड के असल पहाड़ ही उत्तराखंड को बचा सकते हैं। वरना हालत यह है कि रुद्रपुर के सिडकुल की कंपनियां अपने मजदूर उत्तर प्रदेश से लाती है और अपना सीएसआर  बाजपुर में करती हैं। उनको पिथौरागढ़ और बागेश्वर दूसरे देश का हिस्सा लगते हैं, प्रदेश तो छोड़ ही दीजिए। उत्तर प्रदेश में जिस तरह हिल पैकेज हुआ करता था, अफ़सोस इस बात का है कि आज शायद उत्तराखंड बनने के 20 साल बाद पहाड़ी जिलों के लिए वही हिल पैकेज लाने की दरकार है। पहाड़ी जिले एक ही आशा में बैठे रहते हैं कि देहरादून में बैठे नेता व विद्वान शायद उनके लिए कुछ अनुदान दे दें।  

मेरा मानना है कि सूचना क्रांति और युवाशक्ति के इस दौर में उखीमठ, दूनागिरी, मासी, पुरोला, ग्वालदम, नेटवाड़, भराड़ीसैंण, स्याल्दे, कनालीछिना, मुनस्यारी, कपकोट, धारचूला, चिन्यालीसौड़, नारायणबगड़, देवाल, मोरी, भटवाड़ी, पाटी, लोहाघाट, जैसे क्षेत्रों में आजीविका के काम करने में कोई खास परेशानी नहीं होनी चाहिए, बशर्ते कि विकास की योजनाएँ मैदान की जगह पहाड़ केंद्रित हों। ऐसी पहाड़ केंद्रित योजनाओं में कम से कम 15 साल सुनियोजित तरीके से काम हो तो बहुत कुछ किया जा सकता है। इस तरह की योजनाएँ सिर्फ एक एनआरएलएम और कुछ बाहरी फंडिंग की जिम्मेदारी मान के पल्ला झाड़ लेने से क्रियान्वित नहीं हो पायेंगी। रोजगार सृजन को एकल लेंस से देखने के बजाय समेकित नजर देने की जरूरत है। इसमें सरकार, प्रशासन, सिविल सोसाइटी, गाँव के प्रतिनिधि, सभी को शामिल होना पड़ेगा। हर पहाड़ी ब्लॉक लेवल पर इंटीग्रेटेड प्लानिंग ग्रुप्स बना कर सरकार को पहल करनी होगी। इस तरह से कार्य दूसरे अन्य राज्यों में हो रहे हैं। उनके काम को देख समझ कर हम अपने विचारों और योजनाओं को मजबूती दे सकते हैं।

जिस तरह जलागम (वाटरशेड) लिए रिज टू वैली एप्रोच ले कर काम किया जाता है ठीक वैसे ही युवाओं के लिए भी रिज टू वैली एप्रोच ली जा सकती है। समझदार के लिए इशारा ही काफी है। बस्ता पकड़ कर दिल्ली तो कभी भी जाया जा सकता है!

भरत बंगारी
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One Comment on “दिल्ली और पर्यटन से आगे”

  1. समय पश्चात हिंदी में एक उत्तम लेख पड़ने को मिला। भरत जी ने बहुत खूबी से अन्य विकल्पों की बात की है अन्यथा पहाड़ों पर केवल वही कुछ गिनी चुनी आर्थिक आजीविकाओं की बात होती है जिनका परिणाम या तो खुद का पलायन या फिर भविष्य की पिड़ी को पलायन के लिए सामर्थ बनाने तक सीमित हैं

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