हम गैरसैंणी हैं!

सदियों से उत्तराखंड को दो विशिष्ठ भागों में देखा और जाना गया है – कुमाऊँ और गढ़वाल। अक्सर देखा गया है की दोनों क्षेत्रों के निवासी अपने को एक दूसरे से थोड़ा अलग मानते हैं। यह भी बड़ी मजे की बात है गढ़वाली कुमाऊँनियों को और कुमाऊँनी गढ़वालियों को ‘तेज’ कहते है। तेज अर्थात ऐसा व्यक्ति जिससे संबंध बनाते समय एहतियात की जरुरत होती है।

दोनों क्षेत्रों के प्रवेश द्वार एक दूसरे के काफी दूर हैं। दिल्ली के संदर्भ से देखें तो एक त्रिकोण सा बनता है। इसी कारण प्रदेश बनने से पहले गढ़वाली और कुमाऊँनी लोग शायद लखनऊ या दिल्ली में ही ज्यादा मिलते होंगे। पर यह कहना भी उचित नहीं होगा की संबंध नहीं थे। गढ़वाल और कुमाऊँ की सीमाओं में रहने वालों के एक दूसरे से गहरे संबंध थे और हैं। कुमाऊँ की मिलम घाटी के निवासियों के नीति घाटी के निवासियों के साथ शादी व्याह के संबंध थे। एक क्षेत्र से दूसरे में प्रसावन कोई विचित्र घटना नहीं थी। क्या राजा, क्या प्रजा…   सभी तबके के लोग एक दूसरे के यहाँ प्रवासी बने और फिर वहीं के हो गए।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद आपसी मेल जोल बढ़ गया। सभी क्षेत्र के लोगों को शासकीय कार्यों के लिए देहरादून के दरवाजे खटखटाने पड़े। सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति राज्य के विभिन्न जिलों में होने लगी। व्यावसायिक साझेदारी भी बड़ी। बावजूद इसके दोनों क्षेत्रों के लोग फिर भी दूसरे हिस्से को एक विशिष्ट इकाई के रूप में देखने और समझने की कोशिश करते हैं। यद्यपि दोनों हिस्सों की भाषाएँ अलग है पर रीति रिवाजों और भोजन पानी की काफी समानताएँ है जो हमें एक दूसरे की ओर खींचती हैं। भट्ट की भटोणी और भट्ट की डुबके अलग भी है और एक से भी।

हमारे मुसीबतें भी एक सी हैं और दर्द भी। दोनों इकाइयों के लोगों ने एक प्रथक हिमालयी राज्य के लिए आंदोलन किया पर सिड़कुल मैदानों से ऊपर न चढ़ सका। हिमालय में सड़कें आईं भी तो पर्यटकों के लिए, पहाड़ों का सीना चीरते हुए। दिल्ली की बिजली के लिए बुग्याल खुद गए और नदियों रोक दी गई। हमारे कई गाँवों में तो अब भी जी.आई. के तार लगे हैं तो बारिश की दो बूंदों के साथ ही घ्याना-कुति घ्याना-कुति करने लगते है। हमारे अपने घर को आने वाली बिजली के तार दो साल पहले ही बदले गए, कई शिकायतों के बाद। आखिरी खंबों के बीच की दूरी अब भी 450 फीट है – समस्त मानकों के खिलाफ। हमारी नदियों के निकले नहर उत्तर प्रदेश को सींचते हैं पर अपने गाँवों के लिए हम पानी नहीं खींचते हैं। शौचालय बन गए पर पानी नहीं आया। उस व्यक्ति को क्या बोलें जो एक पॉलिथीन की थैली ले कर शौचालय जाता है और प्लास्टिक में बंधे मल को बगल के खेतों में फैंक देता है। इससे अच्छा तो यही होता की वो खुले में शौच कर जाता। कुमाऊँ और गढ़वाल के खेतों को फास्फरस तो मिलता।

अब ऐसे में जब सरकार कहती है की एक और कमिशनरी बनी है जिसे गैरसैंण कहा जाएगा तो न हँसी आती है ना रोना। वर्तमान में अल्मोड़ा जिले का निवासी होने के कारण इस बात का दुख होना चाहिए की ऐतिहासिक कुमाऊँ की राजधानी ही कुमाऊँ का हिस्सा नहीं बची पर वह दुख भी नहीं होता।

सोचता हूँ की क्या गैरसैंण का हिस्सा हो जाने से घर और दुकान बनाने के लिए अलमोड़े की चट्टानों का कटना रुकेगा? क्या रात के अंधियारी में अब भी सेप्टिक टैंक का मलवा नालों में बहा दिया जाएगा? क्या सी.टी. स्कैन करने या हड्डी जोड़ने के लिए अब भी हल्द्वानी जाना होगा? क्या अल्मोड़ा के एन.टी.डी. क्षेत्र को गर्मियों में हर दिन कम से कम एक घंटे पानी मिलेगा?

क्या गैरसैंण कमिशनरी बनने से भैंसियाछाना ब्लॉक की कौशल्या और उसके बच्चों को अब भी पीने के पानी के लिए एक किलोमीटर दूर सड़क किनारे बैठ पर घंटों पानी के सरकारी टैंकर का इंतज़ार करना पड़ेगा? क्या पटवारी अब भी गाँव में ऐसे घूमेंगे मानो वो यहाँ के राजा हों? क्या गाँवों के प्रधानों तथा ब्लॉक काउन्सिल /जिला पंचायत के सदस्यों के कार्य करने के तरीकों में कोई बदलाव आएगा?

क्या गैरसैंण कमिशनरी बनने से पास वाले मिडल स्कूल के मास्टरजी अब शराब पी कर स्कूल नहीं आयेंगे? क्या ब्लैक्बोर्ड में लिखे उत्तरों की नकल मारने की जगह बच्चे खुद प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करेंगे? क्या वन पंचायतों का अतिक्रमण कम होगा? क्या जंगल जलने बंद होंगे? और अगर जलने लगे तो क्या अब भी अपने घर बचाने के लिए गाँव वालों को खुद ही आग से जूझना होगा?

अगर इन सवालों का उत्तर सकारात्मक है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की कमिशनरी को अल्मोड़ा कहें या गैरसैंण या अफगानिस्तान। वैसे कहते तो उत्तराखंड को देवभूमि भी है। पर उससे क्या होता है। लुटती भूमि को अच्छा सा नाम दे देने के क्या लूट रुक जाती है?

सच पूछें तो राजधानी गैरसैंण बने या देहरादून या वापस लखनऊ, कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ना चाहिए पानी ढोती कौशल्या के पीठ के दर्द से। फर्क पड़ना चाहिए उन दलित बच्चों के चेहरों से जिनमें कोई सपने नहीं है। फर्क पड़ना चाहिए उजड़े खेतों से। फर्क पड़ना चाहिए इस बात से की दुकानदारी और ठेकेदारी के अलावा उत्तराखंड के लोगों के पास आजीविका का कोई चारा ही नहीं बचा। फर्क इस बात से भी पड़ना चाहिए कि जो हमें पहले लूटते थे उन्हें हम ‘पराया’ मानते थे पर अब वो हमारे ‘अपने’ हैं। इन बातों से हमें फर्क नहीं पड़ता पर इस बात से पड़ता है की हम कुमाऊँ में हैं या गैणसैण में!

अगर फर्क पड़ता होता तो लोगों को इस बात से भी फर्क पड़ना चाहिए था की उद्यान निदेशालय रानीखेत से देहरादून जा रहा है। कुमाऊँ में एक और यूनिवर्सिटी बनी भी तो अलमोड़े में। पिथौरागढ़ या चंपावत जिले के छात्रों के जीवन में इस करोड़ों के निवेश से क्या फर्क पड़ेगा? उनकी मुसीबतें तो जस की तस बनी रहेंगी। मजे की बात तो ये भी है की यह सब निर्णय अपने ही लोगों की भागीदारी से हुए होंगे। इन निर्णयों में उन अधिकारियों की भागीदारी भी होगी जो चाहते हैं की उनके बच्चे देहरादून में पढ़े। और उन प्रोफेसरों की भी जो वाइस चांसलर या एच.ओ.डी. तो बनना चाहते हैं पर सीमांत इलाकों में नहीं रहना चाहते। सच पूछें तो गैरसैंण कोई नहीं जाना चाहता… न नेता, न अधिकारी। मुझे तो लगता है की खुद आंदोलनकारी तक गैरसैंण क्या, पहाड़ों तक में बसना नहीं चाहते। दिल्ली, लखनऊ न हो सका तो हल्द्वानी या देहरादून ही सही… पहाड़ तो होते ही मुद्दा बनने के लिए हैं। गैरसैंण बस एक नया मुद्दा है। असली मुद्दों से ध्यान भटकाने का एक साधन ताकि चूल्हा जलता रहे और रोटियाँ सिकती रहें।

हमारा क्या। मैं मूल रूप से कुमाऊँनी हूँ और मेरी पत्नी गढ़वाली। हम भटोणी भी खाते हैं और डुबका भी। हम छछिंडा भी खाते हैं और ज्योला भी। हम रोट भी खाते हैं और घुघते भी। जब कोई पूछता था कि “आप कौन हुए” तो समझ नहीं आता था क्या कहें। हमारा तो मसला ही हल हो गया। अब आराम से कह सकते हैं – हम गैणसैणी हैं!

यह लेख शेयर करें -

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *