क्या आप शिक्षा की पैमाइश कर सकते हैं?

प्रो. पीटर ग्रे का एक सवाल है – “क्या आप जीवन के अर्थ को परिभाषित कर सकते हैं?” उनका कहना है की, “वक़्त आ गया है कि क़दम वापस खींचें और शिक्षा के उद्देश्य पर गंभीरता से विचार करें।“ इस लेख में प्रो. पीटर ग्रे ने शिक्षा के माप-जोख से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

प्रो पीटर ग्रे अमेरिका के बोस्टन कॉलेज में मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं। वो मनोविज्ञान तथा शिक्षा पर अपने विचार पुस्तकों व लेखों के माध्यम से साझा करते आए हैं। वो शिक्षा के आधुनिक तरीकों और मानकों के गहरे आलोचक हैं।

इस लेख का हिन्दी अनुवाद श्री आशुतोष उपाध्याय ने किया है, जिनका शिक्षा से गहरा लगाव व संबंध हैं। सामाजिक कर्म, विज्ञान शोध और पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहने के बाद वे सम्प्रति बच्चों के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने की एक राष्ट्रव्यापी मुहिम से जुड़े हैं। उन्होंने अपने गृहनगर बेरीनाग (जिला-पिथौरागढ़) में डॉ. डी.डी. पन्त स्मारक बाल विज्ञान खोजशाला नामक ग्रामीण विज्ञान केंद्र की स्थापना की है।

क्या आप जीवन के अर्थ को परिभाषित कर सकते हैं?
वक़्त आ गया है कि क़दम वापस खींचें और शिक्षा के उद्देश्य पर गंभीरता से विचार करें।

अमेरिका और कई अन्य आधुनिक मुल्क़ों के हम लोग माप-जोख के मुरीद हैं। हमारा ध्येय वाक्य-बन गया लगता है- “अगर आप गिन नहीं सकते तो आपकी कोई गिनती नहीं।” ख़ास तौर पर बच्चों की शिक्षा की पैमाइश को लेकर हम कुछ ज्यादा ही पगलाए हुए हैं। और ‘नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड’ अभियान के साथ हमारा यह पागलपन अपने चरम पर पहुंच गया लगता है. इस अंधी प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे मोहरा बन चुके हैं, जिसने अभिभावक को अभिभावक के, शिक्षक को शिक्षक के, स्कूल को स्कूल के और देश को देश के खिलाफ़ खड़ा कर दिया है। यह प्रतिस्पर्धा बच्चों को परीक्षाओं में बेहतरीन प्रदर्शन की खातिर उन्हें निचोड़ डालने की है। हम बच्चों से उनकी नींद छीन रहे हैं, खेलने और खोजने की आज़ादी छीन रहे हैं- दूसरे शब्दों में कहें तो हम उनके परीक्षा परिणामों को अच्छे से अच्छा देखने के लिए उन्हें उनके बचपन से वंचित कर रहे हैं।

अब वक़्त आ गया है कि हम क़दम पीछे खींचें, कुछ गहरी सासें लें और अपने होशो-हवास पर वापस लौटें। वास्तव में शिक्षा क्या है? इसका उद्देश्य क्या है? इन प्रश्नों के जवाब की रोशनी में देखें कि क्या शिक्षा की माप-जोख संभव है? और अगर संभव है तो क्या इस बात का कोई अर्थ रह जाता है कि हर किसी को एक ही पैमाने पर तौला जाए?

जैसा कि हम जानते हैं आज के स्कूलों की जड़ें (क्रिस्चियन) प्रोटेस्टेंट सुधारों तक जाती हैं। इन सुधारकों के मुताबिक़ बच्चों को पढ़ाना हर ईसाई का कर्तव्य है ताकि वे बाइबिल पढ़ सकें। उनकी धारणा थी कि बच्चों के मन में तयशुदा विश्वासों के बीज बोना भी हर ईसाई का कर्तव्य है। ख़ास तौर पर उनके मन में यह बात बिठानी कि उन्हें आज्ञाकारी होना चाहिए और शरारती बच्चों को नर्क की आग में  जलना पड़ता है। स्कूल भेजने का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट था – बच्चों को ‘आदिम पाप’ से मुक्ति दिलाना, उनके मन में सत्ता के प्रति पर्याप्त भय बैठाना और भीरुता व आज्ञाकारिता की भावना पैदा करने के लिए बाइबिल की सूक्तियों और नैतिक उपदेशों को अच्छी तरह रटाना। स्कूल के इस उद्देश्य को देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं है कि बच्चों की सफलता की जांच-परख कैसे की जाएगी. बच्चे अगर आज्ञाकारी निकले और उन्होंने पाठ ठीक उसी तरह याद किये जैसे शिक्षक (तब उन्हें मास्टर कहा जाता था) ने बताए थे, बड़ों को कभी पलटकर जवाब नहीं दिया तो उन्हें उत्तीर्ण मान लिया जाता था। इससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता था कि उन्होंने कौन से पाठ कैसे किए (जब तक वे बाइबिल की मुखालफ़त नहीं करते); यह ज्यादा मायने रखता था कि बच्चा कितना कर्तव्यपरायण और आज्ञाकारी था। अगर बच्चे ने बग़ावत की और बार-बार अपमानित किए जाने व पिटने के बावज़ूद मास्टर का कहा मानने के बजाय अपनी मर्जी से काम किया तो उसे अनुत्तीर्ण करार किया जाता था। शुरुआत में स्कूली पढ़ाई को ही सम्पूर्ण शिक्षा बताने का दावा नहीं किया जाता था। उन तमाम कौशलों को जो रोजगार और सामाजिक हैसियत देते थे, लोग उन्हें दुनियादारी की असल गतिविधियों से सीख लेते थे। स्कूल चाहे जितना भी महिमामंडित किया जाता हो, बाल जीवन की बहुत थोड़ी जगह घेरता था।

समय के साथ, जब स्कूल की बागडोर सरकारों ने संभाली, स्कूल के घंटों व दिनों की संख्या धीमे-धीमे बढ़ती चली गई और साथ-साथ वहाँ पढ़ाए जाने वाले विषयों की सूची भी लम्बी हो गई। स्कूली पढ़ाई को बहुत से लोग सम्पूर्ण शिक्षा समझने लगे। औद्योगिक क्रान्ति के साथ स्कूलों ने खुद को फैक्टरियों के मॉडल पर ढालना शुरू किया। विद्यार्थी फैक्टरी उत्पादों की तरह एसेम्बली लाइन पर ठेले जाने लगे – एक कक्षा से दूसरी कक्षा। हर पड़ाव पर एक नया शिक्षक तयशुदा ज्ञान व कौशल का नया पैकेट उन्हें सौंपता था और अंत में सांचे में ढला उत्पाद जैसे फैक्टरियों की फिसलन पट्टी से बाहर निकल जाता था, बाकायदा ठप्पेदार प्रमाणपत्र के साथ। स्कूली पढ़ाई की यह मानक पद्धति कमोबेश आज भी बरकरार है, बावज़ूद इसके कि दूसरे मामलों में हम फैक्टरी वाले दौर को इतिहास में बहुत पीछे छोड़ आए हैं। अगर हम इसे शिक्षा कहते हैं तो बिलकुल स्पष्ट है कि इसकी जांच-परख कैसे होगी। हम इस शिक्षा की जांच-परख हर बच्चे की, कन्वेयर बेल्ट के प्रत्येक चरण पर परीक्षा से करते हैं, यह देखने के लिए कि उसने सम्बंधित चरण के निर्धारित “तथ्यों” व कौशलों को हासिल कर लिया है और वह अगले चरण में भेजे जाने के लिए पूरी तरह तैयार है।

बावज़ूद इसके, लम्बे समय से जारी यह फैक्टरी सिस्टम दरकने लगा है। ऊपर से नीचे नियंत्रण की जो व्यवस्था शिक्षक करते थे या जिस तरह वे विद्यार्थी की प्रगति को मापते थे, वह पूरी तरह परिपूर्ण नहीं थी। कुछ शिक्षक मानते थे कि बच्चे कुदरतन एक-दूसरे से अलग होते हैं और बच्चों को यह हक़ है कि वे प्रत्येक दिन का अच्छा-खासा हिस्सा खेलने व आज़ादी से खोजने तथा अपनी खुद की रुचि व जुनून को विकसित करने में बिताएँ। तब एक स्कूल से दूसरे स्कूल के बीच और एक कक्षा से दूसरी कक्षा के बीच इस बात को लेकर असंगति थी कि बच्चे को आगे किस आधार पर बढ़ाया जाए। इस असंगति को ख़त्म करने के लिए कमर कसी गई और नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड (NCLB) अभियान शुरू किया गया। अब सभी उत्पादों को एक निर्धारित मानक पर खरा उतरना अपरिहार्य था, भले ही उनके कच्चे माल में कितना भी फ़र्क क्यों न हो, भले ही स्कूल के बच्चों के जीवन में पड़ने वाले बाहर की दुनिया के प्रभावों में ज़मीन-आसमान का अंतर क्यों न हो, और सीखने व करने के बारे में बच्चों की अपनी इच्छा भले ही कुछ भी क्यों न हो। NCLB कुछ नहीं बस फैक्टरी मॉडल को गंभीरता से लेने की तार्किक परिणति भर था, ताकि अधिकाधिक एकरूप और मानक उत्पाद तैयार किए जा सकें। NCLB के साथ शिक्षक की नौकरी भी इसी ढर्रे आ गई। उन्हें देखना था कि अगर उनके विद्यार्थी मानक परीक्षाओं में खरे नहीं उतर रहे हैं, तो बेशक उन पर परीक्षाओं के अनुरूप पढ़ाने का दबाव और बढ़ जाता था। चूंकि मानक परीक्षाएँ गणित, रीडिंग और थोड़ा कम महत्व के साथ विज्ञान (जो बड़े संकीर्ण ढंग से परिभाषित था) पर जोर देती थीं, अन्य विषयों को पीछे धकेल दिया गया ताकि वही पढ़ाया जाए जिसकी अहमियत है।

लेकिन अब, जैसा मैंने पहले बताया, इस पागलपन से एक कदम पीछे लौटें, कुछ गहरी सांसें खींचें और शिक्षा के बारे में थोड़ा तार्किकता से सोचने की कोशिश करें। यहाँ तक कि हम अगर शिक्षा की परिभाषा को रीडिंग और गणित सीखने तक ही सीमित रखना चाहते हैं, तो भी हम ग़लत रास्ते पर जा रहे हैं। बच्चे आसानी से पढ़ना तभी सीखते हैं जब वे वास्तव में पढ़ना चाहते हैं। और वे आसानी से गणित तभी कर पाते हैं, जब वे ऐसा करना चाहते हैं। सीखने की कुंजी उनके ‘चाहने’ में छुपी है। वास्तव में हम पढ़ने और गणित करने के प्रति बच्चों के दिल में नफ़रत तब पैदा कर देते हैं, जब हम इन कौशलों को दिमाग़ को जड़ कर देने वाले, ज़बरिया एसेम्बली लाइन चरणों में बदल देते हैं। कोई भी सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं पढ़ता और गणित के लिए गणित नहीं करता. लोग जानकारियों के लिए या फिर कहानियों का आनंद लेने के लिए पढ़ना चाहते हैं और वे गणित पर आधारित दिलचस्प वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए गणित करना चाहते हैं। वास्तविक जीवन में लोग इसी तरह सीखते हैं, लोकतांत्रिक स्कूलों और अनस्कूलिंग में यकीन रखने वाले परिवारों में बच्चे इसी तरह सीखते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपनी शिक्षा की बाग-डोर खुद संभालते हैं।

लेकिन अब आइए अपना ध्यान रीडिंग और गणित करने से ज्यादा ज़रूरी चीज़ों की तरफ लगाएँ। वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए? या दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चों के विकास के हमारे लक्ष्य क्या हैं? हममें से ज्यादातर आज अपने बच्चों को किसी बढ़ी शख्सियत का ‘अंधभक्त’ नहीं बनाना चाहते। हमने देखा है कि इस प्रवृत्ति का कितना बुरा अंज़ाम हो सकता है। और मुझे नहीं लगता कि हममें से ज्यादातर शिक्षा का सही उद्देश्य “क्या आप पांचवीं पास से ज्यादा स्मार्ट हैं?” जैसे टीवी शो में अच्छा प्रदर्शन करना समझते होंगे। हम जानते हैं कि मामूली पांचवीं (या कोई भी कक्षा) पास से जो कुछ जानने की अपेक्षा की जाती है, उसका जीवन की सफलता से ख़ास लेना-देना नहीं है। लेकिन हम क्या चाहते हैं? या मुझे यह बात कुछ इस तरह कहनी चाहिए: आप क्या चाहते हैं और मैं क्या चाहता हूं? यह कतई संभव है कि जीवन के मतलब को लेकर आपके और मेरे अलग-अलग विचार हों, और अपने बच्चों से हमारी उम्मीदें भी भिन्न हों।

यहां मैं यह बताना चाहूंगा कि अगर मेरे छोटे बच्चे होते तो आज मैं उनसे क्या चाहता। मैं चाहता कि वे अपने जीवन की बाग-डोर खुद संभालने की भावना के साथ बड़े हों। मैं उन्हें खुश देखना चाहता लेकिन साथ में दूसरों की खुशियों की परवाह करने वाला भी। मैं चाहता कि वे भावनात्मक रूप से मज़बूत बनें ताकि वे जीवन के अवश्यम्भावी उतार-चढ़ाव और निराशा से पार पा सकें। मैं चाहता कि वे जीवन पर्यंत सीखने और पहले से भी ज्यादा तेज़ी से लगातार बदल रही दुनिया में ढलने की अपनी क्षमता को लेकर आश्वस्त रहें। मैं चाहता कि वे अपने जीवन के कुछ लक्ष्य तय करें – ऐसे लक्ष्य जिन्हें पाने का उनमें जुनून हो। मैं चाहता कि वे विवेकपूर्ण ढंग से सोचें और तार्किक निर्णय लें, जिससे उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचने में मदद मिले। मैं चाहता कि उनमें ऐसे नैतिक मूल्य हों जो उनके जीवन को अर्थपूर्ण बनाएं और मैं ऐसी उम्मीद करता कि वे मूल्य मानवीय हों – मानव अधिकारों और जिम्मेदारियों का सम्मान करने वाले मूल्य, उन्हें कुचलने वाले नहीं।

अब यहां एक समस्या है। इनमें से कोई भी चीज़ स्कूल में नहीं सिखाई जाती। ये सारी चीज़ें सक्रिय व बड़े हो रहे बच्चे को खुद खोजनी और सिरजनी पड़ती हैं; और ऐसा करने के लिए हर बच्चे को खेलने और खोजने को बहुत सारा समय चाहिए। हमारे लिए सबसे अच्छा यही होगा कि उनके सामने खुद एक अच्छा आदर्श प्रस्तुत करें और उन्हें एक स्वस्थ, प्रेरणादाई, नैतिक वातावरण उपलब्ध कराएँ जो हमारे बच्चों को वह सब ढूंढने में मदद करे जो वे पाना चाहते हैं और वे अपने और दूसरों के नज़रिए से देखना सीख पाएँ। आखिरकार शिक्षा का उद्देश्य जीवन का अर्थ खोजना ही तो है और जिसे हर व्यक्ति को अपने लिए खुद ही खोजना पड़ता है।

तो क्या आप शिक्षा की पैमाइश कर सकते हैं? क्या आप जीवन के अर्थ को परिभाषित कर सकते हैं? एक तरह से देखें तो यह व्यक्तिगत स्तर पर ही संभव है। शायद कोई केवल अपनी शिक्षा की पैमाइश कर सकता है – अपने जीवन के लक्ष्य स्वयं तय कर जीवन के अर्थ की खोज की दिशा में हुई प्रगति की पड़ताल कर। लेकिन निश्चित ही हममें से कोई भी किसी और की शिक्षा की माप-जोख नहीं कर सकता।

संपादकीय
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2 Comments on “क्या आप शिक्षा की पैमाइश कर सकते हैं?”

  1. महोदय नमस्कार,
    शिक्षा में पैमाईश विषय पर प्रो. पीटर ग्रे का लेख व श्री आशुतोष उपाध्यायजी का अनुवाद आज की शिक्षा पद्धति, शिक्षातंत्र और शिक्षा के उद्देशयों की वास्तविकता का वस्तुनिष्ठ विवरण प्रस्तुत करता हैं जैसे की प्रो पीटर ग्रे ने करीब दो हजार साल बाद के ईसाई धर्म की धार्मिक जरूरतों, औद्योगिक क्रांति और फैक्ट्रीयों में होने वाले मोनोटोनस् कामों के लिए शिक्षा का वर्गीकरण, व्यव्सायीकरण की बात की हैं निसंदेह आज शिक्षा के स्वरूप , स्तर और गरिमा को पैमानों, मापदंडों में सीमित रखने से शिक्षा के मूल उद्देश्यों और अर्थों की उपेक्षा या अवहेलना हो रही हैं आज शिक्षा को मात्र आजीविकापरक बनाने पर जोर हैं शिक्षा मानसिक भूख की पोषक ननबन शारीरिक पेट की भूख मिटाने का पर्याय बनती जा रही हैं.
    हमारी प्रचीन भारतीय संस्कृति में शिक्षा -दिक्षा सदैव आत्मबोध, ज्ञानप्राप्ति और ज्ञान कें प्रसार की द्योतक रही हैं वह कभी भी आजीविका और पैमाईश के गौण उद्देश्यों व अन्य वर्जनाओं में आसक्त नही रही |

    रिगार्ड्स…
    -जीवनसवारो

  2. यह लेख यथार्थ है | पर दुर्भाग्य यह है कि भीड़ में यह थॉट प्रोसेस कहीं खो सी जाती है | इस पर्सपेक्टिव को इंस्टीटूशनलाईज़ कैसे किया जाये? या फिर क्या नॉन-स्कूलिंग लर्निंग पद्दति का इंस्टीटूशनलाइज़ेशन ज़रूरी है ?

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