मुखौटों की हिल जातरा

हिल जातरा उत्तराखंड का पारम्परिक लोक नाट्य उत्सव है। इस उत्सव में कलाकार अलग अलग रंगों और आकारों के मुखौटे पहन कर अभिनय करते हुए अपनी भागीदारी दर्ज करते हैं। यह लेख इस मुखौटों की दुनिया को डिजिटल चित्रों में उकेरने का एक प्रयास है।

जब मैंने डॉ गिरिजा पाण्डे के लेख ‘खेती क उत्सव – हिल जातरा’ के लिए एकत्रित किए गए चित्रों को देखा तो लकड़ी के मुखौटों पर रंगों और आकारों के इस विस्मयकारी संगम को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। ये रंग मुझे अपनी खुशनुमा महफ़िल में बुला रहे थे। एक ऐसी महफ़िल जिसमें डूबने का साक्षात अवसर मुझे आज तक नहीं मिल पाया। इस कमी को दूर करने का एक ही उपाय था – उन रंगों से खेलते हुए उन्हें रेखांकित करना। खेल खेल में कई मुखौटे बन गए जिन्हें इस लेख के माध्यम से साझा कर रहा हूँ।

हिल जातरा के मुखौटों का यह चित्रण किसी तरह का अकादमिक प्रलेखन नहीं है। चित्रों को सजीव करने के लिए रंगों और आकारों से लुकाछिपी भी की है और वाद-विवाद भी। इन सभी चित्रणों का आधार अनेकानेक छायाचित्र हैं जो लेखों के साथ प्रकाशित हैं या फिर मित्रों द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किए गए हैं। चित्रण के लिए मुखौटों का चयन इस आधार पर किया गया की वो सामूहिक रूप से उत्सव की विविधता की झलक दे सकें।

इस प्रयास का एक उद्देश्य यह भी है की ग्रामीण उत्तराखंड के सौन्दर्यबोध से पाठक रूबरू हों और इन रंगों और आकारों में वो अपनी छवि और सौंदर्यात्‍मकता ढूंढ सकें। प्रयास यह भी है की हमें इस बात का एहसास हो कि दुनिया इतनी विशाल व विस्तृत होते हुए भी कितनी जुड़ी हुई है। कि कैसे लोक का भी अपना एक लोक है। कि कैसे रंग, आकार, संरचना, रूपांकन, इत्यादि हर पल हमारे सन्मुख एक साक्ष्य के रूप में उपस्थित रहते हैं ये साबित करने के लिए की हमारी भिन्नता कितनी सतही है।

चलिए अब कुछ बातें करते हैं हिल जातरा के बारे में। हिल जातरा किसानों और चरवाहों का उत्सव है जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की सोर घाटी और उसके आस पास के इलाकों में मनाया जाता है। पिथौरागढ़ जिले की सीमाएँ नेपाल और तिब्बत से लगी हुई हैं। वैसे तो मैं भी मूलतः इसी जिले का निवासी हूँ पर मेरी पुश्तैनी जन्मभूमि सुदूर जोहार घाटी है जहाँ से मेरे पूर्वज व्यापार हेतु तिब्बत आते जाते थे।

हिल जातरा के बारे में प्रचलित मत है की इस उत्सव की जड़ें पश्चिमी नेपाल में हैं। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के खींचे जाने से पहले काली नदी के दोनों ओर रहने वाले लोग एक साझी संस्कृति के रखवाले थे। इन इलाकों में रहने वाले लोगों के सामाजिक, वैवाहिक और आर्थिक रिश्ते किसी अप्राकृतिक लकीर के मोहताज नहीं थे। संस्कृतियों को जोड़ने वाली वही काली नदी अब अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में एक सामाजिक अवरोध बना दी गई है।

उत्सवों का हमेशा से ही सामाजिक ताने बाने बुनने में अहम योगदान रहा है। अपने उत्सवों के अहम उद्देश्य – सामूहिक अभिव्यक्ति और मनोरंजन – को सशक्त करने और उत्सवों के सामाजिक व संस्कारिक विस्तार को बढ़ावा देने के लिए समाजों के बीच हमेशा से आदान प्रदान होता रहा है। हिल जातरा में तो शायद उत्सव का नाम भी पश्चिमी नेपाल की ही भेंट है। माना जाता है कि ‘हिल’ शब्द नेपाली मूल का है, जिसका अर्थ है – कीचड़। जातरा भी स्थानीय शब्द नहीं लगता हालाँकि ‘जात’ एक प्रचलित स्थानीय शब्द है। मुझे कभी कभी लगता है की जातरा शब्द का मूल बंगाल भी हो सकता है। बंगाल में ‘जात्रा’ एक प्रचलित लोक नाट्य कला है। उत्तराखंड के कई निवासी अपना मूल महाराष्ट्र व गुजरात में मानते हैं। महाराष्ट्र में ‘जात्रा’ शब्द का प्रयोग ग्रामीण मेलों के लिए किया जाता है। सामाजिक जुड़ावों की इन संभावनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए तो हमें शायद कई नई बातों का पता चले। कम से कम यह तो जरूर सिद्ध हो जाएगा की संस्कृतियाँ कभी भी ठहर कर सड़ती नहीं है अपितु चलायमान रहती हैं – कुछ अर्जन करती हुईं, कुछ विसर्जन करती हुईं। यही शायद मूल चरित्र भी है संस्कृतियों की  संवृद्धि और विकास का।

हिल जातरा के मुखौटों के मुख्य विषय वस्तु जन, जानवर व भूत-प्रेत हैं। जानवरों में बैल और हिरण/ चीतल के मुखौटे प्रचलित हैं। हिल जातरा का एक महत्वपूर्ण चरित्र है लखिया भूत। पर पारंपरिक संस्कृतियों के संस्कृतिकरण के चलते कुछ लोग आदिकाल से चले आ रहे इस लोक चरित्र को शिवजी के रूप में स्थापित करने की कोशिशों में लगे हैं।

हिल जातरा के मुखौटे खिन की लकड़ी से बनते हैं, जो बहुत हल्की लकड़ी होती है। लकड़ी की नक्काशी के पश्चात मुखौटे के चरित्र को पूर्ण रूप से उभारने के लिए उस पर चित्रकारी की जाती है। फिर मुखौटा धारण करने वाले कलाकार अपने शरीर को रंग कर और अपनी वेशभूषा से चरित्र को सजीव कर देते हैं।

हिन्दू पंचाग के अनुसार यह उत्सव भादों के महीने में मनाया जाता है। अंग्रेजी कैलंडर के अनुसार यह समय अगस्त सितम्बर के महीने में पड़ता है। यह साल का वह समय है जब ग्रामीण जनों के पास थोड़ा फुरसत का वक्त होता है – न बुआई, न गुड़ाई, न निराई और न कटाई। मानसून के पश्चात की हरियाली से हिमालय का सौन्दर्य अपनी चरम में होता है। और इन सब को सँजोता है अद्भुत मौसम। हँसने खिलखिलाने, मिलने मिलाने का इससे अधिक उपयुक्त समय और क्या हो सकता है। त्योहार की शुरुआत घरों / मंदिरों में पूजा से होती है। मुखौटों को पहनने से पहले उन्हें ईश्वर को अर्पित किया जाता है। फिर मुखौटों को पहन कर कलाकार एक जुलूस या शोभायात्रा के रूप में पूरे धूम धाम के साथ सार्वजनिक उत्सव स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं, उन कहानियों को अभिनीत करने जो लोक को लोक से जोड़ती हैं।

हिल जातरा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से जानने समझने के लिए ज्ञानिमा में प्रकाशित डॉ गिरिजा पाण्डे का लेख खेती का उत्सव–हिल जातरा अवश्य पढ़ें।

नवीन पाँगती
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2 Comments on “मुखौटों की हिल जातरा”

  1. नवीन बाबू – कलम ही नहीं तूलिका भी अद्भुत है आपकी।

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