समाज, समय और संविधान

जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हैं और अपने फैसलों व विचारों के लिए जाने जाते हैं। अपने पिता जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ की 101वीं जन्म वार्षिकी के अवसर पर आनलाइन वेबिनार में बोलते हुए उन्होंने समाज व संविधान के संदर्भ में विद्यार्थियों की भूमिका को लेकर कई अहम मुद्दे उठाए। यह लेख 17 जुलाई, 2021 को दिए गए उनके अंग्रेजी व्याख्यान का शाब्दिक नहीं अपितु भावात्मक हिन्दी अनुवाद है। मूल अंग्रेजी व्याख्यान के लिए यहाँ क्लिक करें

जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ का व्याख्यान

मेरे पिता स्वर्गीय जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ की 101वीं जन्म वार्षिकी के अवसर पर शिक्षण प्रसारक मंडली द्वारा आयोजित इस वेबिनार में बोलते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता महसूस हो रही है। मेरे पिता को शिक्षण प्रसारक मंडली बहुत-बहुत प्रिय थी। उन्होंने सेवानिवृति के पश्चात अपना अधिकांश समय इसी संस्थान के संचालन परिषद अध्यक्ष के रूप में व्यतीत किया। छोटे बच्चों के विद्यालय से लेकर उत्तम स्नातकोत्तर महाविद्यालय का संचालन कर यह संस्था भावी पीढ़ी की शिक्षा के प्रति पूरी गंभीरता से अपना दायित्व निभा रही है। प्रमाणित इतिहास के सबसे पुराने दार्शनिक सुकरात ने कहा था – शिक्षा एक पात्र भरने के नहीं अपितु एक लौ जलाने के समान है। मुझे पूरा विश्वास है की शिक्षण प्रसारक मंडली ने अपने सभी विद्यार्थियों के अंदर लौ जलाने का यह अहम कार्य किया है।

आज अपने स्वर्गीय पिता की जन्म वार्षिकी पर मैं उन दो विषयों पर बोलना चाहूँगा जो उनके व मेरे हृदय के बहुत करीब हैं। पहला, शिक्षण संस्थाओं, खासकर शिक्षण प्रसारक मंडली, के साथ सहयोग तथा विद्यार्थियों के साथ संवाद। और दूसरा, भारतीय संविधान का पठन। मैं आपके उन प्रतिभाशाली शिक्षकों की भूमिका नहीं लेना चाहता जिन्होंने आपको स्वतंत्रता आंदोलन, संविधान के सृजन व एक नागरिक के अधिकारों व कर्तव्यों के बारे में पढ़ाया। मैं आज आपकी उस विशिष्ट भूमिका के बारे में चर्चा करना चाहता हूँ जिसके तहत आप एक विद्यार्थी के रुप में भी हमारे संवैधानिक ढाँचे के बचाव के लिए कार्य कर सकते हैं, और कैसे आपकी शिक्षा इस प्रक्रिया में एक अहम भूमिका निभाती है।

जातिवाद, पितृसत्ता व दमनकारी धार्मिक परिपाटियों के विरोध में युद्ध छेड़ने से पहले डॉ अंबेडकर को अपनी स्वयं की शिक्षा के लिए भी संघर्ष करना पड़ा।

भारतीय संविधान पर कोई भी चर्चा डॉ भीमराव अंबेडकर को श्रद्धांजलि दिए बिना शुरू नहीं हो सकती। डॉ अंबेडकर संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे जिन्हें संविधान के जनक व जातिवाद उन्मूलन के प्रमुख अधिवक्ता के रूप में याद किया जाता है। जातिवाद, पितृसत्ता व दमनकारी धार्मिक परिपाटियों के विरोध में युद्ध छेड़ने से पहले उन्हें अपनी स्वयं की शिक्षा के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। वो महार जाति के थे जिन्हें अछूत माना जाता था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा की यादें अपमान व भेदभाव की थीं। उन्हें न केवल कक्षा से बाहर बैठ कर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी अपितु यह भी सुनिश्चित करना पड़ा की गलती से भी वे स्वर्णों का पानी या किताबें ना छू दें। इस सब के बावजूद 26 डिग्रीयाँ अर्जित करते हुए वे अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक शिक्षितों में से एक बने। उनकी शिक्षा केवल उनके निजी विकास की नहीं अपितु भारतीय संविधान की दूरदर्शिता, बारीकी व बदलाव लाने की ताकत की वाहक बनी। वह दलित वर्ग के उन असंख्य लोगों की शब्दावली व महत्वाकांक्षा भी बनी जो जातिवाद व पितृसत्ता की निन्दात्मक संरचना को बाहर खदेड़ना चाहते थे/हैं।

उन्हीं की तरह भारत व विश्व के अनेक क्रांतिकारियों, जैसे सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले, नेल्सन मंडेला और यहाँ तक की मलाला यूसुफजाई के दासत्व-मुक्ति के आंदोलनों के मूल में भी, प्रतिकूल समय व परिस्थिति के बावजूद, शिक्षा पाने की लालसा रही। उनकी कहानियाँ हमें याद दिलाती हैं की वर्तमान की सर्वाधिकार शिक्षा हमारे पूर्वजों के कठिन संघर्ष व सपनों का फल है। उनके संघर्ष व सपने खत्म नहीं हुए हैं। वह तो हर पीढ़ी के साथ आगे बढ़ते जाते हैं ताकि हम समाज की बेहतरी के लिए कार्यरत रहें। यद्यपि मेरे परिवार की कानूनी पृष्ठभूमि है, मेरे आज की समझ को निखारने में मेरे विद्यालय व महाविद्यालय के शिक्षकों व साथियों ने अहम भूमिका निभाई। आप आज अपने अंदर जो जिज्ञासा व उत्साह विकसित करेंगे वही आपके जीवन की प्रेरणा बनेगी। मुझे पूरा विश्वास है कि अपने जीवन के इस रचनात्मक काल में वर्तमान की व्यवस्था व वर्गीकरण पर सवाल उठाते हुए विद्यार्थी प्रगतिशील राजनीति व संस्कृति के संदेशवाहक बन सकते हैं।

एक विद्यार्थी के रूप में जिस आदर्शवाद और आशा के साथ आप समाज बदलने का सपना देखते हैं उसकी कोई अन्य मिसाल नहीं है।

भारत में विद्यार्थी आंदोलनों का इतिहास लगभग 200 साल पुराना है जब सन 1828 में शिक्षक व सुधारक हेनरी लुई वीवियन डेरोजिओ के मार्गदर्शन में अविभाजित बंगाल के हिन्दू कॉलेज में विद्यार्थियों की अकादमिक संस्था बनी। उनकी अगुवाई में यंग बंगाल मूवमेंट की शुरुआत हुई जिसके तहत मध्यवर्गीय बंगाली परिवारों के छात्रों ने हर उस विश्वास व धारणा के निर्मूलन का बीड़ा उठाया जो मुक्त सोच के मार्ग में बाधक था। उनके शिष्यों ने ‘यंग इंडिया ग्रुप ऑफ फ्री थिंकर्स’ के तहत 19वीं सदी के बंगाल नवजागरण (बंगाल रेनेसां) में भागीदारी की। फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित इस आंदोलन ने भारत में उस मुक्त सोच को सबल किया जो रूढ़िवादी व दमनकारी धार्मिक कुरीतियों को चुनौती देने का काम कर रही थी। इस तरह के विद्यार्थी आंदोलनों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका ही नहीं निभाई अपितु बड़ी सामाजिक भागीदारी को भी सुनिश्चित किया। 1920 के असहयोग आंदोलन, 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन तथा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में विद्यार्थियों ने नेतृत्व की कमान भी संभाली। न्याय के लिए विद्यार्थियों की यह जंग केवल औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ ही नहीं बल्कि भविष्य के हर अन्याय के खिलाफ भी थी – जैसे 1975 का आपातकाल जब लोकतान्त्रिक रुप से चुनी हुई सरकार ने आंतरिक अशान्ति के नाम पर नागरिक अधिकारों का हनन किया और वाक् स्वातंत्र्य का गला घोंटा। एक विद्यार्थी के रूप में जिस आदर्शवाद और आशा के साथ आप समाज बदलने का सपना देखते हैं उसकी कोई अन्य मिसाल नहीं है। अगर मुझे एक ऐसे समय के बारे में बात करनी हो जब पूरा देश समान रूप से आदर्शवाद में डूबा था तो वह हमारी आजादी का क्षण था जब हमने सदियों की सामाजिक और आर्थिक दासता से मुक्ति पाई।

हमारे संविधान ने भारत को एक स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में स्थापित किया। पहली बार हमारे देश के हर नागरिक को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के रुप में देश की शासन व्यवस्था में भागीदारी का हक मिला। यह हक किसी जाति, लिंग, भाषा या धर्म पर आधारित नहीं था। हमारे संविधान ने हमें पराधीन से स्वाधीन ही नहीं बनाया बल्कि हमें व हमारी राजव्यवस्था को जातिवाद, पितृसत्ता और सांप्रदायिकता की दासता से मुक्ति दिलाने की चुनौती को भी अंगीकृत किया। साथ ही साथ संविधान ने एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करने का बीड़ा भी उठाया जो हमारे लिए, सदियों की औपनिवेशिक आर्थिक दासता के पश्चात, विकास व आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त करे। संविधान ने सब नागरिकों को समान रूप से अधिकार प्रदान किए, जैसे मतदान का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, भाषण व अभिव्यक्ति का अधिकार, इत्यादि। इनमें से कई अधिकार गैर नागरिकों को भी प्राप्त हैं। इनमें से किसी भी अधिकार के हनन पर हम उच्च तथा उच्चतम न्यायालय के द्वार पर दस्तक दे कर न्याय प्राप्त कर सकते हैं। हमारे संविधान के लिए सामाजिक व आर्थिक समानता भी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं इसीलिए संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्व भी सूचीबद्ध हैं। पर केवल इन तत्वों के आधार पर संसद द्वारा पारित कानूनों को न्यायालय में चुनौती नहीं जा सकती। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि शुरुआती दौर में एक साधनहीन देश के लिए इन सिद्धांतों का पूर्ण रूप से क्रियान्वयन करना संभव नहीं था। क्योंकि इन तत्वों के आधार पर अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता इसलिए अमूमन मान लिया जाता है कि ये तत्व अप्रासंगिक या बेमतलब हैं। पर अगर संविधान को करीब से देखें और समझें तो यह साफ दिखाई पड़ता है की यह तत्व भविष्य की शासन प्रणाली की नींव रखने के लिए सूचीबद्ध किए गए थे, ताकि समय के साथ हम उस शासन व्यवस्था की ओर अग्रसर हों जिसका सपना हमारे संविधान में निहित है।

हमें इस बात का आभास होना जरूरी है कि चाहे शांति का दौर हो या संकट का, सरकार की निर्वाचित वैधता से परे, संविधान वह ध्रुव तारा हैं जिसके संदर्भ में ही राज्य की हर कर्मण्यता या अकर्मण्यता का आँकलन किया जा सकता है।

हम अपने संवैधानिक गणतंत्र के 71वें साल में पदार्पण कर रहे हैं। हमें लग सकता हैं की हमारा लोकतंत्र नया नहीं हैं इसलिए संविधान का इतिहास पढ़ने या संविधान की रूपरेखा समझने की अब कोई जरूरत नहीं है। परन्तु हमें इस बात का आभास होना जरूरी है कि चाहे शांति का दौर हो या संकट का, सरकार की निर्वाचित वैधता से परे, संविधान वह ध्रुव तारा हैं जिसके संदर्भ में ही राज्य की हर कर्मण्यता या अकर्मण्यता का आँकलन किया जा सकता है। भारत ने यूरोपीय देशों की तरह, उदार क्रांति के जरिए, अपनी आजादी प्राप्त नहीं की। यूरोप के देश, क्रांति के दौर में, औद्योगीकरण के कारण हो रहे सामाजिक बदलाव से जूझ रहे थे पर भारत अपने कस्बों और गाँवों में, जहाँ सामंती व्यवस्था का दबदबा था, आधुनिक आर्थिक व्यवस्था लाने के लिए जूझ रहा था। साथ ही साथ भारत, एकीकृत जातीयता के अभाव में, एक समग्र राष्ट्रीय पहचान बनाने के जटिल लक्ष्य को भी प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था। विभिन्न संस्कृतियों के मिश्रण से बना एक देश जहाँ हर व्यक्ति के पास अपनी निजी बहुआयामी पहचान है वहाँ लोकतंत्र के आधार पर बने एक आधुनिक राज्य की कठिन परीक्षा होना तय था। हमारे देश के गठन की नींव उन वचनों में हैं जो हर नागरिक को प्रतिबद्धता व पात्रता प्रदान करते हैं – वचन की सभी नागरिकों को, राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप के बिना, धार्मिक स्वतंत्रता मिलेगी, लिंग, जाति व धर्म से परे सभी नागरिकों में समानता होगी, सभी नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता होगी, सभी नागरिक पूर्ण स्वतंत्रता से घूम-फिर सकेंगे – उस वैयक्‍तिक व जीने की स्वतंत्रता के साथ जो चिरस्थायी है। सभी बहुसंख्यक प्रवृतियों को, जब और जहाँ भी वो उठें, इन्हीं संवैधानिक वचनों के आधार पर चुनौती देनी होगी। सत्तावादिता, नागरिकों की स्वतंत्रता पर अंकुश, धर्म या क्षेत्र के आधार पर द्वेष या घृणा, लैंगिकवाद, जातिवाद, आदि का महज आभास भी हमारे पुरखों को दिए गए उन संवैधानिक वचनों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है जिनके आधार पर उन्होंने भारत को एक संवैधानिक गणतंत्र के रूप में स्वीकार किया।

आप एक वकील ना भी बनना चाहें, तब भी हमारे संविधान का इतिहास तथा उसकी भावना व नैतिकता को समझने का प्रयास करें क्योंकि हमारा संविधान केवल वकीलों का संविधान नहीं है। पेशे से एक वकील, और अब एक न्यायाधीश, होना अपने को निरंतर शिक्षित बनाए रखने की कोशिश भी है। ताकि मैं हर दिन अपने दायित्व ठीक से निभा सकूँ, मुझे अनेकानेक विषयों का पठन करना पड़ता है। आधार नंबर की संवैधानिकता और भारतीय विशिष्‍ट पहचान प्राधिकरण (यू.आई.डी.ए.आई.) की कार्यप्रणाली समझने के लिए प्रौद्योगिकी के जटिल विषय और अलगोरिथ्म समझने पड़ते हैं। कोविड19 के वैक्सीन विकास व उत्पादन, लाइसेन्सिंग व टेक्नॉलजी ट्रांसफर समझने के लिए जटिल विज्ञान की प्रक्रिया समझनी पड़ती है। यहाँ मैं यह बात फिर दोहराना चाहूँगा की केवल वकील उस अनुपम बिन्दु पर नहीं बैठे रहते जहाँ से जीवन के हर पक्ष का संवैधानिक मूल्यांकन हो सके। हम में हर कोई – उम्र, पेशे, स्थान, सामाजिक व आर्थिक स्थिति से परे – हर रोज संविधान से रूबरू होते हैं। जब हम राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप के बिना अपना जीवन जीते हैं, जब हमारी जातिगत पहचान हमारे बाजार, पार्क, मंदिर जाने, या कुएँ से पानी निकालने में बाधक नहीं बनती, जब पूरी स्वतंत्रता से हम अपनी मन की बात कह सकते हैं तब हम अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग कर रहे होते हैं। जिस तरह से आज हम अपना जीवन जी रहे हैं, 75 साल पहले उस तरह से अपना जीवन जीना संभव नहीं था। हमारे संविधान में राज्य प्रणाली की वह परिकल्पना निहित है जिसके तहत हम लगातार अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं। हमारे संविधान में संसोधन की प्रक्रिया जटिल नहीं है। समाज के बदलते मूल्यों व बदलती जरूरतों के आधार पर इस संवैधानिक प्रावधान का प्रयोग 100 से भी अधिक बार हो चुका है। 2002 में, अनुच्छेद 21ए के आधार पर, शिक्षा का अधिकार के तहत 6 से 14 वर्ष के विद्यार्थियों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया। उच्चतम न्यायालय ने, इतिहास के सबसे बड़े न्यायपीठ के माध्यम से, यह भी स्पष्ट किया की संसोधन के इस संवैधानिक अधिकार के जरिए भारतीय संविधान के मूल स्वरूप व चरित्र से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। संविधान के मूल स्वरूप व चरित्र की रक्षा के लिए विद्यार्थी, एक ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के रुप में, महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

आप एक वकील ना भी बनना चाहें, तब भी हमारे संविधान का इतिहास तथा उसकी भावना व नैतिकता को समझने का प्रयास करें क्योंकि हमारा संविधान केवल वकीलों का संविधान नहीं है।

1950 में जब हमारा संविधान लागू हुआ, हम सोच भी नहीं सकते थे की टेक्नॉलजी इस हद तक हमारे जीवन को प्रभावित करेगी। टेक्नॉलजी ने हमारा सामाजिक परिदृश्य इस कदर बदल दिया है की दुनिया को देखने के लिए वो हमारी मुख्य खिड़की बन चुका है। कोविड19 ने टेक्नॉलजी की पैंठ को और गति दी है। यह टेक्नॉलजी नहीं होती तो मैं आज आपको यूँ संबोधित नहीं कर पाता और आप मुझे यूँ सुन नहीं पाते। जिस तीव्रता से यह डिजिटल युग हमारे समाज के ढाँचे व आकार को बदल रहा है, हमें यह सुनिश्चित करना होगा की हमारे संवैधानिक संस्थान इस बदलाव के अनुरूप अपने को ढालें ताकि वो अपनी सांगठनिक ताकत व निर्णय लेने की क्षमता को बरकरार रख सकें।

जैसा की मैंने पहले भी कहा है, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में मुझे हर दिन अनूठे ढंगों से संविधान को समझना बूझना पड़ता है। एक ऐसी ही चुनौती थी यह तय करना की क्या समस्त भारतीय नागरिकों को निजता का अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) है। राइट टू प्राइवेसी का तात्पर्य है अपने निजी निर्णय स्वयं लेने, सूचना प्राप्त करने औरे राज्य या निजी उपक्रमों की निगरानी के बिना जीने का अधिकार। यह सवाल आज के डिजिटल युग के फलस्वरूप उठे। 1989 में वर्ल्ड वाइड वेब के आगमन से पहले इन अधिकारों का कोई खास औचित्य नहीं था। 1950 में बना भारतीय संविधान अगर हमारे आज के अनुरूप नहीं ढाला जा सकता तो वह एक मृत पत्र की तरह होता जिसके रूढ़िवादी नियम आज की हकीकत को समझ नहीं पाते। उच्चतम न्यायालय के हमारे निर्णय में मेरा निष्कर्ष यह था की निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार का एक अभिन्न हिस्सा है। यह निर्णय इस बात की स्वीकार्यता थी की हमारा संविधान वह नींव है जिस पर भविष्य निर्मित होता है। ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़े बिना उसके शाब्दिक क्रियान्वयन का कोई औचित्य नहीं है। संविधान ने हमारी संवैधानिक संस्थाओं की रूपरेखा को, नियमों व अवरोधों के बल पर, इस तरह निर्मित किया है कि समानता, स्वतंत्रता व न्याय संविधान का मूल लक्ष्य बना रहे। भविष्य की पीढ़ियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि संविधान का भावात्मक विश्लेषण व परिपालन उनके वर्तमान के अनुकूल हों।

संविधान, टेक्नॉलौजी की ही तरह, आज के स्तर के वैश्वीकरण व निजीकरण का पूर्वानुमान भी नहीं लगा पाया। संविधान का मानना था की एक नए स्वतंत्र देश के रुप में राज्य ही समाज का मुख्य कर्ता, नियोजक, व विकासक होगा। इसीलिए संविधान में, अनेक अधिकारों व आश्वस्तियों के मार्फत, इस बात का लिखित प्रावधान रखा गया की राज्य नागरिकों का उत्पीड़न न कर सके। पर संविधान, भावनात्मक रूप में, इस बात के लिए प्रतिबद्ध है की नागरिक हर किस्म के आधिपत्य से बचे रहें। संविधान की प्रस्तावना में समस्त नागरिकों की “न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक” स्वतंत्रता निहित है। आज के वैश्वीकरण व बढ़ते निजीकरण के दौर में जरूरी नहीं की शक्तिशाली निगमों द्वारा परिभाषित स्वतंत्रता, संवैधानिक स्वतंत्रता के मापदंडों पर खरी उतरे, खासकर पिछड़ी जातियों और वर्गों के संदर्भ में। अगर हम संविधान के मूलभाव को बहुसंख्यकवाद नियंत्रक के रूप में देखें तो हम स्वयं तो वह विशिष्ट दृष्टि प्रदान करते हैं जिसके माध्यम से हम प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन बना सकते हैं ताकि हमारी वैज्ञानिक उन्नति तो हो, पर उसका फल कुछ खास वर्गों तक सीमित ना रह सम्पूर्ण मानवता को मिले।

जरूरी नहीं की आप वकालत या सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थी हों तभी संविधान और उसमें निहित सीखें आपको हरदम प्रभावित करेगी।

जरूरी नहीं की आप वकालत या सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थी हों तभी संविधान और उसमें निहित सीखें आपको हरदम प्रभावित करेगी। अगर आप इंजीनियर या डेटा वैज्ञानिक के रुप में कोई एप या अलगोरिथ्म बनाते हैं तो हो सकता है वो हमारी आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करे या शायद सबसे गरीब लोगों की जिन्दगियों को जो दिहाड़ी पर हर दिन की रोटी कमाते हैं। आर्टिफ़िशियल इन्टेलिजन्स कई कार्यों को स्वसंचालित कर सकता है पर ऐसा करते हुए वह, जाने अनजाने, हमारे पूर्वाग्रहों को चिरस्थायी भी बना सकता है। अधिकांश तकनीकी हल अपने को किसी न किसी सामाजिक व्यवस्था पर प्रतिरोपित करते हैं पर जरूरी नहीं की वो व्यवस्थाएँ अपने आप में न्यायसंगत हों इसलिए टेक्नॉलजी को नियंत्रित करना होगा। उसके लिए जरूरी है की नियंत्रक जागरूक व कर्तव्यनिष्ठ नागरिक हों। अगर आप डॉक्टर या वैज्ञानिक बनते हैं तो विज्ञान के मठाधीशों के पक्ष को समझ कर आप इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि कैसे महिलाओं के अनुभवों को अनदेखा या क्षीण किया जाता है। इस पूर्वाग्रह को हटाने का सचेत प्रयास शायद सभी महिलाओं के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की नींव रखे। हम सभी अपने समाज के गुणक व प्रकार्य हैं और उससे हम अपने को जुदा नहीं कर सकते। समाज की बेहतरी का पहला कदम है उसके सामूहिक व दैहिक यथार्थ का सूक्ष्म परीक्षण। हमारे संविधान की अभिकल्पना हमें यह सूक्ष्म दृष्टि प्रदान करती है।

हम तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे हैं। कोविड19 महामारी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि  पारिस्थितिकीय खलल मौजूदा असमानताओं को बढ़ाता है। इस संकट से निपटने के लिए हमें विश्व स्तर पर एक ऐसे सामूहिक मुहिम की जरूरत है जो पहले कभी नहीं हुई। हमारी प्रजाति के अस्तित्व के लिए सचेत नागरिकों, खासकर विद्यार्थियों को अपने भौतिक अभिरुचियों को गौण करना होगा। स्वीडन की संसद के बाहर बैठ भूमण्डलीय तापक्रम वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) के लिए सरकार से कार्यवाही की माँग करते हुए 15 वर्षीय ग्रीटा थनबर्ग ने अपनी यात्रा शुरू की और वे आज जलवायु परिवर्तन के विरोध में उठ रहे नागरिक समाज की प्रमुख आवाजों में से एक हैं। उनका, और उन्हीं की तरह कई अन्य लोगों का उदाहरण, यह सिद्ध करता है कि बड़े बदलाव की नींव किसी की उम्र या सामाजिक महत्व की मोहताज नहीं होती।

एक ऐसा देश होना प्रलयकारी होगा जहाँ के नागरिक तकनीकी रूप से निपुण हैं पर समालोचना, चिंतन, स्वत:निर्धारण की काबिलियत खो चुके हैं तथा मानवता व विविधता/बहुरूपता का समादर नहीं करते।

मारथा नुसबाउम

मैं अपनी बात जानी-मानी विधि शिक्षक मारथा नुसबाउम के उद्धरण से करना चाहूँगा – “एक ऐसा देश होना प्रलयकारी होगा जहाँ के नागरिक तकनीकी रूप से निपुण हैं पर समालोचना, चिंतन, स्वत:निर्धारण की काबिलियत खो चुके हैं तथा मानवता व विविधता/बहुरूपता का समादर नहीं करते।“ मुझे पूरा विश्वास है कि  शिक्षण प्रसारक मंडली के सभी विद्यार्थी, भूतपूर्व विद्यार्थियों की तरह, श्रेष्ठ बुद्धिजीवी ही नहीं अपितु समानुभूति रखने वाले सचेत नागरिक भी बनेंगे।

नवीन पाँगती
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One Comment on “समाज, समय और संविधान”

  1. महोदय नमस्कार,
    हमारा संविधान सर्वोपरि है जो सभी नागरिकों को समान रुप से मूलभूत अधिकारों को परिभाषित, संरक्षित और सुनिश्चित करता है.

    जैसा कि सामाजिक परिवेश,परिस्थितियां, आवश्यकता और चुनौतियां स्टाटिक(जड़) नही डॉयनामिक (गतिशील) होती है ऐसे में देश काल परिस्थिति को संज्ञान में रखते हुए हमें संविधान को भी समयानुरुप सक्षम बनाते रहना चाहिए जिससे बदली हुई परिस्थितियों में भी हमारी न्याय,अधिकार,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ह्यूमन डिग्निटी में कोई डॉयल्यूशन न होने पाएं ।

    रिगार्ड्स……

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