उत्तराखंड की फागुनी बहारें

भारत में लोक उत्सव गतिशीलता और विविधता के अनूठे उदाहरण हैं। लोक उत्सवों की इस विविधता का एक रूप उत्तराखंड की होली है। यहाँ यह बसंत ऋतु का सबसे महत्वपूर्ण लोक उत्सव है। लम्बे ठिठुरन भरे महीनों के बाद फागुन के आते ही जैसे-जैसे पहाड़ों में तापमान बढ़ना शुरू होता है, प्रकृति भी अपना रूप बदलने लगती हैं।

जागेश्वर मंदिर समूह के प्रांगण में ‘चीर’

वनस्पतियों, पेड़-पौधों में नई कोपलों, बुरांश, मेहल में खिले फूलों के साथ प्रकृति ज्यों-ज्यों अपनी छटा बिखरने लगती है, चारों ओर एक खुशनुमा वातावरण की निर्मिति होने लगती है। प्राकृतिक ऊर्जा प्रवाह के इस खुशनुमा वातावरण के बीच होली के साथ पहाड़ों में सामूहिकता को परिलक्षित करता त्योहारों का सिलसिला आरम्भ होता है।

दरअसल बसंत ऋतु के उल्लास और स्वागत के विविध रूप आदम समाजों से ही देखने को मिलते हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य में ‘बाल नखत’ जैसे उत्सव मनाए जाने का जिक्र मिलता है। इस उत्सव में गाँव के लोग मुँह रंगाए, गोबर-कीचड़ सने कपड़े पहने समूह में घर-घर घूमते और अपनी इछित वस्तु की माँग करते थे। कुछ एक विद्वानों ने इस उत्सव को वैदिक बलि अनुष्ठान ‘महाब्रत’ और ‘नवषयेष्टि’ से जोड़ कर भी देखा है। नाग-वाकाटक काल में बसंत ऋतु का स्वागत मदनोत्सव या सुवसन्तक के रूप में किया जाने लगा। कामसूत्र में भी ‘होलका’ नामक रंगों के उत्सव मनाए जाने का उल्लेख मिलता है। पौराणिक काल के आते आते होली को लेकर नई परंपरायें स्थापित हुई। नारद पुराण में फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका की विधिवत पूजा किए जाने और अलग-अलग इलाकों से लकड़ियाँ लाकर उसके ढेर में आग लगाने के साथ-साथ उसकी परिक्रमा किए जाने के विवरण मिलते हैं। ‘होलिका’ और ‘प्रह्लाद’ का प्रसंग भी इसी अनुष्ठान से जुड़ा है।

जागेश्वर में ‘चीर’ ले कर घर घर जाते होलियार 

उत्तराखंड में मनाये जाने वाली होली की अपनी विशिष्ठता है। यहाँ होली न केवल अपने विविधता भरे स्वरुप और समयकाल की बानगी सामने रखती है, वरन यह सामाजिक इतिहास की अलग अलग स्थानीय परतों को भी उद्घाटित करती है। यह उल्लेखनीय है कि समय के साथ स्थानीय गीत-संगीत, हास्य-परिहास, व्यंग, स्वतंत्र एवं सामाजिक सरोकारों से जुडी अभिव्यक्तियाँ इसकी पहचान बनते चले गए। अलग-अलग इलाकों के अनेक नए प्रसंग समय के साथ इसमें जुड़ते गए और होली अपनी आंचलिक विविधता के साथ फलती फूलती चली गई।

देखा जाय तो यह ऋतु उत्सव महज पवित्रता और ईश्वर के प्रति समर्पण का वार्षिक अनुष्ठान नहीं वरन आंचलिक सन्दर्भों में पशुचारक समाजों के उत्सवी चेतना, उसकी विविधता और संगठन व स्वरूप, के साथ-साथ लोक और बाह्य संस्कृतियों के समागम से उपजने वाली नई परंपराओं का जीवंत उदाहरण भी है। स्थानीय जीवन पद्धति, उसकी परिकल्पनायें संगीत, नृत्य, अभिनय और लोक-नाट्य और अभिव्यक्तियाँ इसकी विशेषता है।

लोक चेतना में उत्सवों की विविधता की बात उत्तराखंड में उत्तरकाशी जनपद स्थित दयारा बुग्याल में पीढिय़ों से मनाये जाने वाले अंढूड़ी उत्सव से करते हैं हालांकि यह उत्सव बसंत से हट कर वर्षा ऋतु में मनाया जाता है। भटवाड़ी ब्लाक के रैथल गाँव से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित उच्च हिमालयी दयारा बुग्याल में भाद्रपद संक्रांति को अंढूड़ी  उत्सव या यूं कहें कि छाछ-दही और मक्खन से होली खेलने की परंपरा है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि पहले लोग गाय के गोबर से इस  होली को खेलते थे। कालांतर में गोबर का स्थान दही-छाछ और मक्खन ने ले लिया।

दयारा बुगयाल में अंढूड़ी उत्सव में एक दूसरे के साथ छाछ और मक्खन की होली खेलने के तैयारी करते रैथल और आसपास के ग्रामीण

गर्मियों का मौसम शुरू होते ही रैथल समेत आसपास के ग्रामीणों का अपने मवेशियों के साथ बुग्यालों की ओर मौसमी प्रवासन का सिलसिला आरम्भ होता है। वर्षा ऋतु में चार महीने तक ग्रामीण इन बुग्यालों में रहते हैं। स्थानीय निवासियों का विश्वास है कि प्रकृति की अनुकम्पा से इस प्रवासन के दौरान मवेशियों के दुग्ध उत्पादन में अप्रत्याशित वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप घरों में संपन्नता आती है। अतः शीतकाल में स्थाई आवासों की ओर लौटने से पूर्व इन बुग्यालों में प्रकृति का आभार व्यक्त करने के लिए ग्रामवासी प्रकृति पूजा के साथ-साथ ‘अंढूड़ी’ मनाते थे।

कुमाऊँ के ग्रामीण अंचलों में बसंतोत्सव के विविध रूप देखने को मिलते हैं। बसंत ऋतु के उल्लास का सिलसिला फुलदेई के आयोजन से आरंभ होते हुए देखा जा सकता है। अधिकांश ग्रामीण हिस्सों में फाग गायन की परंपरा है। झोड़े-चाँचरी के गीतों के साथ लयबद्ध तरीके से पदचाप करते स्त्री-पुरुष रात्रि में मनोरंजन करते बसंत के आगमन का आनंद लेते हैं।

चंपावत राजबुंगा (तहसील) प्रांगण में बारी-बारी से आसपास के गावों से होल्यारों की टोलियाँ आ कर खड़ी होली के गायन की परंपरा को आज भी बनाए हुए हैं।
चंपावत राजबुंगा (तहसील) प्रांगण में महिलाओं द्वारा खड़ी-होली के आयोजन की परंपरा आज भी यथावत जारी है।

कुमाऊँ में होली आज जिस रूप में दिखाई देती है, यह स्वरूप अपेक्षाकृत बाद में विकसित हुआ प्रतीत होता है। यदि स्थानीय समाज में इसका प्रवेशकाल तलाशने की कोशिश की जाय तो मध्यकाल में चन्द्रवंशीय सामंतों के समय से यह वर्तमान स्वरूप में विकसित होती दिखती है। इस दौर में गंगा-यमुना के मैदानों में फल-फूल रही संस्कृतियों से स्थानीय समाज का संपर्क हुआ और अनेक नए सांस्कृतिक अवयवों का स्थानीय जीवन में समावेश हुआ। इस संपर्क ने स्थानीय फाग गायन को होली के रूप में एक नया आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। होली इस बात का बेहतरीन उदाहरण है की कैसे परम्परायें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती है। सुदूर पश्चिमी नेपाल में अछाम के बैजनाथ में मनाई जाने वाली होली को लेकर मान्यता है कि यह उत्सव आज से लगभग चार-साड़े चार सौ वर्ष पहले वैवाहिक संबंधों के द्वारा कुमाऊँ से यहाँ आया और अपने स्थानीय कलेवर के साथ यहीं का हो गया।

सुदूर पश्चिमी नेपाल में अछाम के बैजनाथ में मनाई जाने वाली होली

लोकोत्सवों की यह खासियत है कि विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से मनाए जाने वाले उत्सव समय के साथ संस्कृतिकरण और एकीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए मिश्रित रूप ले लेते हैं। ऐसे रूपांतरण में यद्यपि आरंभिक तत्वों का अस्थित्व बना तो रहता है लेकिन समुदाय उनके स्वतंत्र स्वरूप को गौण समझ या अनदेखा कर वर्तमान को ही अतीत से स्थापित परंपरा समझने लगते हैं।

उत्तराखंड की बैठकी होली गायन में विभिन्न कथानकों और सामाजिक बिंबों का समावेश और स्थानीय वाद्य यंत्रों के साथ ढोलक, मंजीरे, खड़ताल, बिणई, सारंगी और हारमोनियम का प्रयोग समय के साथ यहाँ के लोक उत्सवों में नए अवयवों के समावेशीकरण के रूप में देखा जा सकता है। यह सब मिलकर स्थानीय होली उत्सव के व्यक्तित्व को एक अलग लोककला शैली का रूप देती हैं।

आज पर्वतीय उत्तराखंड में होली के दो प्रचलित रूप- ‘खड़ी होली’ और ‘बैठ होली’ हैं। ‘खड़ी होली’ की विशेषता इसका बड़ी संख्या में आम लोगों की हिस्सेदारी और ढोल, नगाड़े, मजीरे की धुन के साथ गोल घेरे में सामूहिक नृत्य-गायन वाला आयोजन होना है। सामूहिक वृत्ताकार नृत्य संरचना में सर्वाधिक भागीदारी लोहाघाट के सुई-बिशङ की होली में आज भी देखी जा सकती है। ऐसी वृत्ताकार सामूहिक नृत्य संरचनाओं में दो या अधिक मुख्य गायक, जिसे बौरारो घाटी में ‘डांगर’ कहा जाता है, होली के छंद गाते हैं और शेष लोग उसे दोहराते हैं। अपने स्वरुप और गायन की इलाकाई विशिष्ठता के कारण पाली-पछाऊं, सतराली, गंगोली, काली कुमाऊँ और खासपरजा में खड़ी होली गायन और आयोजन की विशिष्ठ शैली दिखाई पड़ती है।

कुमाऊँ में होली तीन माह तक चलने वाला आयोजन है, जिसे तीन चरणों में संपन्न किया जाता है। होली का पहला चरण पौष मास के पहले रविवार और दूसरा चरण बसंत पंचमी से तो तीसरा चरण आमलकी एकादशी से आरम्भ होता है। जहाँ पहले दो चरण मुख्यतः ‘बैठ होली’ पर केन्द्रित होते हैं, वहीं तीसरे चरण में रंगों के प्रयोग के साथ ‘खड़ी होली’ की धूम मचती है।

पाताल भुवनेश्वर मंदिर प्रांगण में पय्याँ (पद्म) के पेड़ की टहनी को गाढ़ कर रंग-बिरंगेकपड़े के धडे बांध कर स्थापित की गई चीर

‘खड़ी होली’ का एक और अनूठा सामूहिक अनुष्ठान है ‘चीर-बंधन’। आमतौर पर आमलकी एकादशी को किसी मंदिर के प्रांगण या गाँव और कस्बों के सार्वजनिक स्थल में पय्याँ, बांस या किसी उपलब्ध वृक्ष की बड़ी सी शाखा को गाढ़ा जाता है और उसमें सफ़ेद रंग छिड़के और रंग-बिरंगे कपडे की चिन्दियाँ बाँधी जाती और हर घर से लाई गई अबीर गुलाल छिड़की जाती। चीर स्थापित करने के उपरान्त रात्रि में उसके चारों और गोल घेरे में एकत्रित हो कर खड़ी होली का नृत्य-गायन किया जाता है। गणपति वन्दना, भक्ति रस से लेकर बृज भूमि, राधा कृष्णा के प्रेम प्रसंग और अंत में श्रृंगार गीतों से भरा यह आयोजन छलड़ी तक निर्बाध रूप से चलता है। चतुर्दशी और पूर्णमासी को चीर पूरे गाँव इलाके के घर-घर में घुमाए जाने का भी चलन था। गायकों की टोलियाँ चाँदनी रात में घर-घर जा कर होली गीत और अंत में होली की शुभाशीष और मंगल कामना के गीत गाती हुई फिर ‘चीर स्थल’ में लौट आती हैं। यहाँ पूरी रात होली गायन का क्रम चलता चला जाता है।

यहाँ पर ‘चीर’ की परंपरा को लेकर यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि पहले सभी गावों में चीर बंधन नहीं ही होता था। केवल उन्हीं गावों में चीर बाँधी जाती थी जिन गाँवों को तत्कालीन सामंतों द्वारा ध्वजा पताका दी गई थी। यहाँ चीर बंधन विशेषतः होलिकाष्टमी को ही होता था। गाँवों में कुछ वर्षों पहले तक चीर चुराने के प्रथा का प्रचलन भी था। जिस गाँव की चीर चुरा ली जाती वह फिर तब तक चीर बंधन नहीं कर सकता था जब तक कि वह अन्यत्र से चीर चुरा के न ले आए। चीर चुर जाना अशुभ भी समझा जाता था इसीलिए चीर की सुरक्षा को लेकर होलिकाष्टमी से पूर्णिमा तक नियमित रूप से चीर बंधन स्थल पर पूरी रात खड़ी होली का आयोजन किया जाता था।

गंगोली क्षेत्र में घर-घर जाने वाली होल्यारों की टोलियों के आगे-आगे चीर-ध्वजा और कालिका की जटाओं से सजे निषाण स्तम्भ लेकर चलने की परंपरा

‘खड़ी होली’ में घरों में भ्रमण के दौरान घर के मुखिया द्वारा होली गायकों की टोली को गुड की भेली और सामूहिक भंडारे के लिए कुछ धनराशि भी दिये जाने का चलन था। अनेक बार होली के बीच में कोई ‘स्वांग’ बन कर किसी घर में चला आता और एकल संवाद द्वारा परिवार जनों के बीच हास्य-परिहास या व्यंग कर माहौल को खुशनुमा बना देता। स्वांगों के बहाने वर्ष भर के मन-मुटाव, आपसी तनाव हँसते-हँसते मिटा दिये जाते थे। दरअसल ऐसे अभिनय सामाजिक कुरीतियों या लोगों के अवांछित व्यवहार पर सामूहिक नियंत्रण लगाने अनोखे तरीके थे। खड़ी होलियों की यह धूम होलिका दहन के दूसरे दिन छलड़ी तक बनी रहती। कई जगह दंपति टीका, संवत्सर और कई जगह राम नवमी तक होली गायन के परंपरा है।

उत्तराखंड में होली का दूसरा स्वरूप है ‘बैठ होली’ जिसे बैठकी होली भी कहते हैं। इसका चलन मुख्यतः कस्बों और नगरों तक और खासकर स्थानीय भद्रलोक के बीच है। हालांकि समाज में आए बदलाव के साथ यह धीरे-धीरे अब ग्रामीण अंचलों तक भी पहुँचने लगी है। मैदानों के साथ हुए सामाजिक-सांस्कृतिक संपर्कों ने होली के इस रूप को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘बैठ होली’ कि शुरुआत आमतौर पर पूस (पौष) महीने के पहले रविवार से हो जाती है। विभिन्न वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ होली गायन का सिलसिला शुरू होता है और होली के शौकीन लोग पूर्व निर्धारित घरों में एकत्र होकर होली की बैठकें किया करते हैं। इस अवसर पर सिद्द हस्त होल्यारों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता है। ‘बैठ होली’ के गीत जो मूलतः बृज या खड़ी बोली से प्रभावित है, शाष्त्रीय संगीत के धुनों में गाये जाते है। इनमें ठुमरी का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। हालांकि काफी, देश, पीलू, खमाज, भैरबी, कल्याण जैसे रागों पर आधारित होली गायन भी उतना ही प्रचलन में है।

हुक्का क्लब अल्मोड़ा में बैठकी होली

बैठकों में गायन की शुरुआत निर्वाण के गीतों यथा क्या जिंदगी का ठिकाना, फिर मन काहे रे भुलाना से होती है और बसंत पंचमी के बाद से शृंगार प्रधान होलियों के गायन का प्राधान्य हो जाता है। मध्य काल में मैदानों से आए मुस्लिम संगीतज्ञों ने नए नए प्रयोग कर बैठ होली को नया आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संदर्भ में अल्मोड़ा में बैठ होली को निखारने में उस्ताद अमानत हुसैन के योगदान को देखा जा सकता है। ‘बैठ होली’ की एक अन्य विशेषता है इसका रंगमंचीय स्वरूप होना है। पारसी थियेटर की भांति भाव-प्रदर्शन और संवाद जैसे पक्ष इसमें भी परिलक्षित होते है जब गायक सामने बैठे श्रोताओं को गीत के बोल दोहराने और गायन के लिए प्रेरित कर भागीदारी सुनिश्चित करता है। अब से सौ वर्ष पूर्व बृज से नृत्य टोलियों के यहाँ आगमन उल्लेख भी मिलते हैं।

होलियों में महिलाओं की हिस्सेदारी ने होलियों के एक और रूप को विकसित किया जिसे ‘महिला होली’ कहा जाता है। इसमें ‘खड़ी होली’ और ‘बैठ होली’ का बेहतरीन समन्वय तो दिखता ही है, साथ ही ‘स्वांग’ और ‘ठेठर’ का आयोजन इसकी विशिष्टता है।

उत्तराखंड में होली उत्सव की विविधता का एक और रूप है थरूवाट की होली। थारु जनजातीय क्षेत्र में माघ से फाल्गुन के बीच पूरे एक माह तक होली अलग रूप में मनाई जाती है। यद्यपि इसमें कुमाऊँ की तरह ‘चीर बंधन’ जैसा अनुष्ठान नहीं होता किन्तु इसका आरंभ ‘भरड़ा’ (गाव का पुरोहित) संबंधित गाँव के मुखिया के साथ लोकदेवता ‘भूमिसेन’ की पूजा और गाँव के छोर में होलिका की स्थापना के साथ किया जाता है। होली नृत्य गायन की शुरुआत गाँव के मुखिया के घर से होती है और फिर स्त्री पुरुषों की अलग-अलग टोलियाँ घर-घर जाती हैं। थारु होली का विशेष आकर्षण इसकी गोल घेरे में सामूहिक नृत्य संरचना है। पूर्णिमा के दिन होलिका दहन के साथ भूमिसेन मंदिर में पूजा अर्चना के साथ होली का समापन होता है।

दिल्ली में बैठकी होली मानते उत्तराखंड के प्रवासी 

परम्परायें कैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़ती हैं और कैसे सामाजिक नवनिर्माण में इसकी ऊर्जा सहायक होती है, उत्तराखंड में होलियों के संदर्भ में इसे सहजता से देखा जा सकता है। कुमाऊँनी होलियों के आरंभिक रचनाकार कौन थे यह तो नहीं कहा जा सकता है पर 19वीं सदी से इसके संदर्भ मिलने लगते है। होली की परंपरागत धारा में  किशनदास साह, बृजेन्द्र लाल साह, लक्ष्मी लाल वर्मा, तारादत्त पांडे, शिवचरण पांडे सरीखे अनेकाने लोगों ने इसे समृद्ध किया तो दूसरी धारा में गौर्दा, चारुचन्द्र पांडे, गिरदा से लेकर नैनीताल समाचार, युग मंच, जैसी संस्थाओं ने इसे सामाजिक संदर्भों से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इस तरह अनेक रचनाधर्मियों ने उत्सवीय चेतना और परम्पराओं को माध्यम बना कर राष्ट्रीय चेतना को तो आगे बढ़ाया ही, साथ ही समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वाश, ढकोसलों और पाखंड पर करारी चोट भी की।

उत्तराखंड में होलियों का यह विकासक्रम बताता है मध्यकाल में किस तरह समुदायों के सांस्कृतिक समन्वय ने यहाँ की होलियों के व्यक्तित्व को आकार दिया। लोकजीवन में झोड़े-चाँचरी और फाग-गायन से रूपांतरित हुई यह उत्सवीय चेतना पिछली कुछ शताब्दियों में अनेक नए तत्वों और बोली-भाषाओं को आत्मसात करते हुए अपनी विविधता और अनूठेपन के साथ वर्तमान स्वरूप तक पहुँच कर फागुन के विविध रंग बिखेर रही है।

गिरिजा पांडे
Latest posts by गिरिजा पांडे (see all)
यह लेख शेयर करें -

One Comment on “उत्तराखंड की फागुनी बहारें”

  1. आपका लिखा लेख सारगर्भित न हो ऐसा असंभव है इसलिए एक ही बार में पूरा पढ डाला, सचमुच कितने सुन्दर तरीके से आपने छुपी हुई जानकारियों को उखेला है और सांस्कृतिक व सामाजिक पक्ष को सरलतापूर्वक परोसा है, इस हेतु आपका हृदय से आभार व धन्यवाद और आपके अप्रतिम प्रयास को साधुवाद। आप व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई परम मित्र एवं हितैषी प्रोफेसर साहब।

Leave a Reply to Kailsh Chandra Tewari Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *